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शहर के लिए एक और कविता

shahr ke liye ek aur kawita

उपांशु

उपांशु

शहर के लिए एक और कविता

उपांशु

और अधिकउपांशु

    जब दुपहर की धूप आँखों पर अँधेरे का पर्दा खींचने आती है

    जब उसकी ऊष्म किरणें पसीने से सनी मेरे देह को

    बारिश की बूँदों में हाफ़-बॉइल करती हैं—

    मै उस वक़्त ख़ुद को तुम्हारे बहुत क़रीब महसूस करता हूँ

    मैं वही इंसान हूँ जो तुम्हारी सड़कों पर पत्थरों से फ़ुटबॉल खेलता है

    रेत पर लेटी हुई कुतिया को हाँफता देख

    उसके लिए एक बिस्कुट

    और ख़ुद के लिए एक सिगरेट ख़रीदता है

    कश भरता है और बिस्कुट उसकी तरफ़ फेंक कर निकल जाता है

    वह फेफड़ों में धुआँ भरता है और हर कश में ख़ुद से सिगरेट छोड़ने का वादा करता है

    चार सिगरेट बाद

    वह सड़कों पर सूखते गोबर में अपने इतिहास की कल्पना करता है

    आगे से एक मोटरसाइकिल जिसे अपने धूमकेतु होने की कुंठा उत्पीड़ित कर रही है

    धूमकेतुओं-सी पृथ्वी से लिपट जाती है

    धमाका एक हज़ार चीटियों के को-ऑर्डिनेटेड तांडव जितना

    वह जो धूमकेतु का आहार बनते-बनते रह गया

    गोबर को खटाल से जोड़ता है

    खटाल को गायों से

    गायों को दूध से—

    माँ ने वापस आते वक़्त एक पैकेट दूध लाने को कहा था

    इतिहास गोबर से शुरू हो दूध के पैकेट पर रुक जाता है

    दूध लेना संसार का सबसे ज़रूरी दायित्व है—

    चलो एक और सुट्टे का बहाना मिल गया

    दायित्व से मुझे सुट्टे का धुआँ कलेजे पर पत्थर के टुकड़ों जितना भारी लगता है

    सिगरेट फेंक नहीं सकता

    कम-बख़्त तुम्हारे आशिक़ों ने इस बेचारी के साथ भी टैक्स वाला खेल शुरू कर दिया है

    हम सबकी पीठ पर मुझे चट्टानें लदी दीखती हैं

    सोचता हूँ अगर सिसीफ़स मेरी तरह रूहों की दुनिया देख पाता

    तो ज्यूस की पीठ पर उसे कितनी लाशें दिखतीं?

    कहो तो तुम्हारे आशिक़ों से पूछर देखूँ

    ख़ैर, जैसे तेल पकने के बाद सब्ज़ी अपना रस छोडती है

    उस दुपहरी पसीना वैसे ही छूट रहा था

    बाज़ारों को काटती सड़कें

    गिट्टियों और गड्ढों से बना अलकतरे का रास्ता

    साढ़े चार सौ मीटर की ऊँचाई से तुम्हारी सूख चुकी नसों का मानचित्र है

    लेकिन उस पर खड़े इंसान के लिए

    उसनता

    तपता

    सीझता

    कड़ाही

    तवा

    प्रेशर कुकर है और ख़ूबसूरती सड़कों पर फैला कचरा है

    इन बाज़ारों का और जो सड़कों पर हैं ख़ाली क़ब्रों में सड़ रहे गड्ढे

    कुचले जाने को आतुर कौतुक कंकालों की तरह झाँकती गिट्टियाँ

    उन पर उछलते चक्के, लड़खड़ाती टाँगें और साढ़े चार सौ मीटर ऊँचे

    अपने सिंहासन पर अट्टहास करता शोर—

    क़यामत के दिन की एक झलक

    स्रोत :
    • रचनाकार : उपांशु
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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