मैत्री का निर्वाह
maitri ka nirwah
इन दिनों मैं जब
उससे कुछ कहता हूँ
तो वह अपनी छाया छोड़
कहीं और गया हुआ मिलता है
हाँ, हूँ करती उसकी छाया
कुछ लौटाकर नहीं देती
और अंततः मैं भी अपनी छाया छोड़
कहीं और निकल जाता हूँ
हमारी छायाएँ लगभग रोज़ मिलती हैं
देर तक आमने-सामने बैठती हैं
कोई विप्लव खड़ा नहीं करतीं
बिना छुए आस-पास गुज़रती हैं
हम अक्सर समहत रहते हैं
- पुस्तक : ज़िल्लत की रोटी (पृष्ठ 40)
- रचनाकार : मनमोहन
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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