रहमान, सलमा और मैं
rahman, salma aur main
रहमान, सलमा और मैं
सलमा मेरे साथ चोरी छिपे सोती थी
वह कबूतर उड़ाती हुई पतंग उड़ाती थी
जबकि रहमान, दूर से ही
उसे देखता हुआ, पूछता था मुझसे
यार! इश्क़ कैसा होता है?
मुहब्बत क्या होती है?
दोस्त! तुम्हें समझ आता है प्यार?
मैं नहीं जानता था कुछ भी
मैं जानता था सिर्फ़ सलमा के मुँह का द्वार
उसके दोनों गालों के गड्ढे
उसकी हाँ-ना करती शोख नाक
उसकी घुमावदार गर्दन
उसकी ठोढ़ी के नीचे का तिल
उपमा उत्प्रेक्षा यमक अनुप्रास
प्रतीक प्रतिमा श्लेष ध्वनि
वृत्त छंद मुझे कुछ नहीं मालूम था
मैं नहीं था सूफ़ी फ़रिश्ता फ़कीर
मैं नहीं था पीर या अफलातून
सलमा के संग मैं था मासूम
उसकी शादी के बाद मैं फूट फूट कर
रोया एक बार और रहमान ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर
फुसफुसाया, सब समझता हूँ दोस्त।
- पुस्तक : मैजिक मुहल्ला खंड दो (पृष्ठ 17)
- रचनाकार : दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2019
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