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द्वितीया

dwitiya

अज्ञेय

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द्वितीया

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और अधिकअज्ञेय

    मेरे सारे शब्द प्यार के किसी दूर विगता के जूठे :

    तुम्हें मनाने हाय कहाँ से ले आऊँ मैं भाव अनूठे?

    तुम देती हो अनुकंपा से मैं कृतज्ञ हो ले लेता हूँ—

    तुम रूठीं—मैं मन मसोस कर कहता, भाग्य हमारे रूठे!

    मैं तुमको संबोधन कर मीठी-मीठी बातें करता हूँ,

    किंतु हृदय के भीतर किसकी तीखी चोट सदा सहता हूँ?

    बातें सच्ची हैं, यद्यपि वे नहीं तुम्हारी हो सकती हैं—

    तुमसे झूठ कहूँ कैसे जब उसके प्रति सच्चा रहता हूँ?

    मेरा क्या है दोष कि जिसको मैंने जी भर प्यार किया था,

    प्रात-किरण ज्यों नव-कलिका में जिसको उर में धार लिया था,

    मुझ आतुर को छोड़ अकेली जाने किस पथ चली गई वह—

    एक आग के फेरे करके जिस पर सब कुछ वार दिया था?

    मेरा क्या है दोष कि मैंने तुमको बाद किसी के जाना?

    अपना जब छिन गया, पराए धन का तब गौरव पहचाना?

    प्रथम बार का मिलन चिरंतन सोचो, कैसे हो सकता है—

    जब इस जग के चौराहे पर लगा हुआ है आना-जाना?

    होगी यह कामुकता जो मैं तुमको साथ यहाँ ले आया—

    किसी गता के आसन पर जो बरबस मैंने तुम्हें बिठाया,

    किंतु देखता हूँ, मेरे उर में अब भी वह रिक्त बना है,

    निर्बल होकर भी मैं उसकी स्मृति से अलग कहाँ हो पाया?

    तुम मुझे कोसो, लज्जा से मस्तक मेरा झुका हुआ है,

    उर में वह अपराध व्यक्त है होंठों पर जो रुका हुआ है—

    आज तुम्हारे सम्मुख जो उपहार रूप रखने आया हूँ

    वह मेरा मन-फूल दूसरी वेदी पर चढ़ चुका हुआ है!

    फिर भी मैं कैसे आया हूँ क्यों कर यह तुमको समझाऊँ—

    स्वयं किसी का होकर कैसे मैं तुमको अपना कह पाऊँ?

    पर मंदिर की माँग यही है वेदी रहे क्षण-भर सूनी

    वह यह कब इंगित करता है किसकी प्रतिमा वहाँ बिठाऊँ?

    नहीं अंग खोकर लकड़ी पर हृदय अपाहिज का थमता है।

    किंतु उसी पर धीरे-धीरे पुन: धैर्य उसका जमता है।

    उर उसको धारे है, फिर भी तेरे लिए खुला जाता है—

    उतना आतुर प्यार हो पर उतनी ही कोमल ममता है!

    शायद यह भी धोखा ही हो, तब तुम सच मानोगी इतना :

    एक तुम्हीं को दे देता हूँ उससे बच जाता है जितना।

    और छोड़ कर मुझको वह निर्मम इतनी है अब है संन्यासिनि—

    उस को भोग लगा कर भी तो बच जाता है जाने कितना!

    प्यार अनादि स्वयं है, यद्यपि हम में अभी-अभी आया है,

    बीच हमारे जाने कितने मिलन-विग्रहों की छाया है—

    मति तो उसके साथ गई, पर यह विचार कर रह जाता हूँ—

    वह भी थी विडंबना विधि की यह भी विधना की माया है!

    उस अत्यंतगता की स्मृति को फिर दो सूखे फूल चढ़ा कर

    उस दीपक की अनझिप ज्वाला आदर से थोड़ा उकसा कर

    मैं मानो उसकी अनुमति से फिर उसकी याद हरी करता हूँ—

    उससे कही हुई बातें फिर-फिर तेरे आगे दुहरा कर!

    स्रोत :
    • पुस्तक : सन्नाटे का छंद (पृष्ठ 25)
    • संपादक : अशोक वाजपेयी
    • रचनाकार : अज्ञेय
    • प्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशन
    • संस्करण : 1997

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