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निर्लोभता

nirlobhta

अनुवाद : एम. जी. वेंकटकृष्णन

तिरुवल्लुवर

तिरुवल्लुवर

निर्लोभता

तिरुवल्लुवर

और अधिकतिरुवल्लुवर

    171

    न्याय-बुद्धि को छोड़ कर, यदि हो पर-धन-लोभ।

    हो कर नाश कुटुम्ब का, होगा दोषारोप॥

    172

    न्याय-पक्ष के त्याग से, जिनको होती लाज।

    लोभित पर-धन-लाभ से, करते नहीं अकाज॥

    173

    नश्वर सुख के लोभ में, वे करें दुष्कृत्य।

    जिनको इच्छा हो रही, पाने को सुख नित्य॥

    174

    जो हैं इन्द्रियजित तथा, ज्ञानी भी अकलंक।

    दारिदवश भी लालची, होते नहीं अशंक॥

    175

    तीखे विस्तृत ज्ञान से, क्या होगा उपकार।

    लालचवश सबसे करें, अनुचित व्यवहार॥

    176

    ईश-कृपा की चाह से, जो धर्म से भ्रष्ट।

    दुष्ट-कर्म धन-लोभ से, सोचे तो वह नष्ट॥

    177

    चाहो मत संपत्ति को, लालच से उत्पन्न।

    उसका फल होता नहीं कभी सुगुण-संपन्न॥

    178

    निज धन का क्षय हो नहीं, इसका क्या सदुपाय।

    अन्यों की संपत्ति का, लोभ किया नहिं जाय॥

    179

    निर्लोभता ग्रहण करें, धर्म मान धीमान।

    श्री पहुँचे उनके यहाँ, युक्त काल थल जान॥

    180

    अविचारी के लोभ से, होगा उसका अन्त।

    लोभ-हीनता-विभव से, होगी विजय अनन्त॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : तिरुक्कुरल : भाग 1 - धर्म-कांड
    • रचनाकार : तिरुवल्लुवर

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