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श्रद्धा का संबल

shardha ka sambal

अनुवाद : शांतिकुमार नानूराम व्यास

चन्द्रधर शर्मा

चन्द्रधर शर्मा

श्रद्धा का संबल

चन्द्रधर शर्मा

और अधिकचन्द्रधर शर्मा

    सृष्टि के आरंभ में कोई हारा-थका मानव, जिसकी महत्ता अस्त हो

    गई थी और शक्ति सोई पड़ी थी, प्राकृतिक परंपराओं के बंधनों से जकड़ा

    हुआ था। जैसे समुद्र वड़वाग्नि को धारण करता है, वैसे वह भी अंतराल में

    एक ज्योति धारण किए हुए था। प्रातःकाल के समय वह चकित होकर आकाश

    में एक बाह्य ज्योति देख रहा था।

    बिजली धारण करने वाले बादल की शोभा जिस प्रकार शरत्काल में

    विनष्ट हो जाती है, उसी प्रकार वह मानव शोक से व्याकुल था। प्रातःकालीन

    पीले क्षीणकाय चन्द्रमा के समान उसका तेज अंदर छिपा था। अपनी शक्ति

    को भूल जाने के कारण वह दुःख के सागर को पार करने में असमर्थ था।

    प्रकृति के वैभव को बार-बार याद करते हुए वह अत्यंत दीन होकर खड़ा था।

    पृथ्वी, जल, आकाश, वायु और अग्नि से उत्पन्न होने वाले उत्पात; मगर

    आदि प्रमुख जलचर तथा दूसरे विषैले जंतु; क्रूर, मांस के लोभी, खूँखार

    बनैले पशु—ये सब उस मानव को, जो सुरक्षा, घर-बार और सगे-संबंधियों

    के बिना व्याकुल था, अत्यंत पीड़ा पहुँचा रहे थे।

    ब्रह्म माया-शक्ति से अपना स्वरूप पहले अन्नमय रूप में, फिर प्राणमय

    रूप में और फिर विज्ञानमय रूप में प्रकट करता है। ये उसके रूप-रूपांतर

    मात्र हैं (तात्त्विक परिणाम नहीं)। ब्रह्म द्वारा प्रकटित विज्ञान की जो प्रथम

    किरण थी, उसे मानव ने प्रगति की सूचक पावन वेला में प्राप्त किया।

    हे श्रद्धे, यदि तुम्हारे निर्मल दृष्टिपात से यह जगत् प्राणवान् होता

    तो निश्चय ही यह सारा तर्क-प्रपंच व्यर्थ ही हो जाता। तुम्हारे बिना तर्कों में

    उलझे हुए इस जड़ जगत् का विकास ही हो पाता, उस परम पुरुष

    (परमात्मा) की ज्योति को प्राप्त करने की बात तो दूर रही।

    उठो, इतनी अधिक कायरता तुम्हें शोभा नहीं देती। पौरुषहीनता को

    मत प्राप्त होओ। अपने हृदय में स्थित इस दीन भाव का परित्याग करो।

    अपने मित्रों के साथ सदा धर्म में स्थिर रहो। शोक मत करो। श्रद्धापूर्वक

    धैर्य धारण करो। मैं तुम्हारे प्रेम के वशीभूत होकर सदैव तुम्हारे पास हूँ।

    अत्यंत मधुर माधुर्य-रस से युक्त कांता के वचनों को सुनकर उस मानव

    को भलीभाँति धैर्य बँधा और वह तुरंत उठ खड़ा हुआ। जब प्रीतिपरायण

    श्रद्धा ने स्नेहवश उसका हाथ पकड़ा तब वह कृतकृत्य हो गया और ज्ञान प्राप्त

    करके प्रातःकाल उस पवित्र मार्ग पर उसके साथ चल पड़ा।

    जब उस प्रवीण मानव ने देखा कि विश्व-विजयी सम्राट् कामदेव, प्रेम-

    परिपूरित वसंत द्वारा स्नेहपूर्वक पुष्पमय पात्र में दिए गए माधवी लताओं के

    माधुर्य के अत्यंत मीठे मधु का आस्वादन करते हुए, रहे हैं, तब वह भी

    धैर्य से तुरंत डिग गया।

    जहाँ स्त्री-पुरुष के मन का सदा पूर्णतया ऐक्य बना रहता हो, जहाँ

    सुख, दुःख, शरीर और हृदय में एक-सी स्थिति रहती हो, जहाँ प्रेम के कारण

    शुद्ध भाव से समस्त हृदय का समर्पण किया गया हो, वहाँ तुरंत ही स्नेह

    और आनंद सदैव के लिए एकत्र हो जाते हैं।

    संघर्ष से धू-धू करते इस जगत् में अंधविश्वासों से कल्याण नहीं मिल

    सकता। यह तो मेरी ही कृपा है कि तुम संसार में पशुओं से श्रेष्ठ हो। इस

    क्लेशयुक्त संसार के नवीन निर्माण कार्य के लिए उठो। जो दुस्साध्य है उसे

    भी मेरे दृष्टिपात से सुसाध्य हुआ जानो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 519)
    • रचनाकार : चन्द्रधर शर्मा
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1956

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