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संरचना

sanrachna

नेहल शाह

नेहल शाह

संरचना

नेहल शाह

मैंने यह जाना कि

मनुष्य को जब से मनुष्य कहा जा रहा,

तब से उसकी संरचना तय है,

कोई ख़ास बदलाव नहीं आया उसमें।

(इधर स्पष्ट कर दूँ कि में मनुष्य में स्त्री और पुरुष दोनों गिनती हूँ)

किंतु!

युग बीत जाने पर भी

स्त्री-देह अब भी जिज्ञासा का विषय है। आश्चर्य है!

इतनी वैज्ञानिक प्रगति हो जाने पर भी

स्त्री की संरचना को

कोई स्वीकृति नहीं मिली।

उसे अजब अचंभे सा देखना या

अनाधिकृत टटोलना आज भी जारी है।

ऐसा भी नहीं

कि जो देखता, टटोलता है,

वह अनभिज्ञ तबका है,

या असभ्य समाज का हिस्सा.

बस उनके देखने, छूने के कारण अलग हैं।

जाने कहाँ से आते हैं वे,

घूर कर और टटोल कर

जाने कहाँ को चले जाते हैं?

कुछ लोग उन्हें पुरुष कहते हैं

तो क्या, पुरुष ऐसे होते हैं?

या केवल उनकी शारीरिक संरचना पुरुषों जैसी है?

क्या स्त्री को आवरण से ढक देना,

उसे नग्न होने से बचा सकता है किसी पुरुष की नज़रों में

मुझे एक क़िस्सा याद जाता है,

द्रौपदी चीर हरण का,

जब पांडव उसे भरी सभा में,

जुए में हार गए थे,

और वह लज्जित हो

चीख़ रही थी न्याय के लिए,

रोक रही थी खींचने से अपना आवरण,

कृष्ण को याद कर रही थी,

कृष्ण आए और बढ़ा दिया उसका चीर,

भगवान जो ठहरे,

इस दृश्य पर सभी ने बहुत तालियाँ बजाई,

मैंने भी।

किंतु,

क्या सही मायनों में

कृष्ण उसे निर्वस्त्र होने से रोक पाए थे?

क्या वह निर्वस्त्र नहीं हो गई थी सभा में बैठे प्रत्येक व्यक्ति की कल्पना में?

और आज भी जब इस बात का ज़िक्र होता है,

वह अनावृत हो जाती है हमारे ज़ेहन में,

किसी प्रेक्षागृह की तरह।

और हम कृष्ण को ढूँढ़ते फिरते हैं

उसके आवरण के लिए।

और सोचिए जो कृष्ण समय पर पहुँच पाते,

तो भी वे एक स्त्री की संरचना से अधिक

और क्या देख लेते?

स्रोत :
  • रचनाकार : नेहल शाह
  • प्रकाशन : पहली बार

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