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साँझ सवेरा

sanjh sawera

अनुवाद : राजेंद्र प्रसाद मिश्र

सीताकांत महापात्र

सीताकांत महापात्र

साँझ सवेरा

सीताकांत महापात्र

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    हमेशा देर से पहुँचता हूँ :

    ताज़े फूल, अगरु और मृत्यु की महक

    धूमिल कोठरी में भर चुकी होती है

    सारे शब्द निःशब्द

    मिल चुके होते हैं शून्य सागर में

    सारी मुद्राएँ स्तब्ध और चकित हो

    बिला जाती हैं कहीं

    भोर के तारे की तरह

    कुछ कहने से पहले

    सहसा कन्नी काटकर

    जा चुका होता है कोई

    सारी बात अनपहुँच रह जाती है

    इतना भर समझने में

    लग गई एक पूरी ज़िंदगी :

    सवेरा डोंगी में बैठ

    आता है बंधान घाट टोले तक

    टोले के छोर पर

    चाय की दुकान में बैठ

    चाय पीता है मन मारकर

    मीत बनता है

    सहजन की डाल पर बैठे

    एकाकी कौए को

    और शाम को डोंगी पर सवार हो

    पुनः चला जाता है

    आकाश में, नदी के उस पार

    जबकि जो सवेरा है वही साँझ है

    उजाले का ज्वार और भाटा

    महज़ अवाक् स्मृतियों का खेल है

    नदी के उस पार से

    दूर ही कितना है बंधान

    पहुँचने का उन्माद

    हमेशा धरे रखता है

    लौट जाने का उघाटन

    इतना भर समझने में

    एक जीवन

    सचमुच कितना छोटा है

    कितना लाचार है!

    उजाले की बेल पसर जाती है

    अँधेरे से अँधेरे की ओर

    धारा बहती है चिरकाल

    घाट से घाट तक

    घाट किनारे रेत पर

    चित्र आँकते हैं पुरोहित

    प्रेत दिखता है मंदिर की दीवार पर

    एक अधमिटी तस्वीर-सा

    पुरोहित मंत्र पढ़कर

    उजाले और अँधेरे को

    सुबह और साँझ को

    माटी पानी हवा आग को

    असीम आकाश को, अनुपस्थिति को

    क्षण भर जोड़ देता है

    उस नदी के मंगल सूत्र में

    सहसा अपरिचित दिन-रात

    बह जाते हैं स्वप्न की तरह

    नदी की धार में

    चाहे जितने आँसू बहाओ

    फिर भी अबूझ रह जाता है

    नदी का किनारा और उसकी रेत

    साँझ पहुँचती है सुबह-सुबह

    कुछ-कुछ पहचानने-सा भाव लिए

    और कभी-कभी सवेरा भी

    पहुँचता है साँझ को

    राह भूलकर।

    स्रोत :
    • पुस्तक : लौट आने का समय (पृष्ठ 7)
    • रचनाकार : सीताकांत महापात्र
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1994

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