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समाधि-लेख

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श्रीकांत वर्मा

श्रीकांत वर्मा

समाधि-लेख

श्रीकांत वर्मा

और अधिकश्रीकांत वर्मा

    हवा में झूल रही है एक डाल : कुछ चिड़ियाँ

    कुछ और चिड़ियों से पूछती हैं हाल!

    एक स्त्री आईने के सामने

    सँवारती है बाल।

    कई साल

    हुए

    मैंने लिखी थीं कुछ कविताएँ!

    तृष्णाएँ

    साल ख़त्म होने पर

    उठकर

    अबाबीलों की तरह

    टकराती, मँडराती,

    चिल्लाती हैं।

    स्त्रियाँ

    पता नहीं जीवन में आती

    या जीवन से

    जाती हैं!

    आएँ या जाएँ!

    अब मुझमें एक अंधे की तरह

    पैरों की आहट

    सुनने का उत्साह नहीं।

    मैं जानता हूँ एक दिन यह

    पाने की विकलता

    और पाने का दुख

    दोनों अर्थहीन

    हो जाते हैं।

    नींद में बच्चे सुगबुगाते हैं।

    माँएँ जाग जाती हैं।

    घर से निकाली हुई स्त्रियाँ

    द्वार पीटती हैं

    और द्वार नहीं खुलने पर

    बाहर

    चिल्लाती हैं

    मुझे तिलमिलाती हैं

    मेरी विफलताएँ

    घर के दरवाज़े पर

    ‘हमारी माँग पूरी करो’

    नारा लगाती हैं।

    मैं उठता हूँ और उठकर

    खिड़कियाँ, दरवाज़े

    और क़मीज़ के बटन

    बंद कर लेता हूँ

    और फ़ुर्ती के साथ

    एक काग़ज़ पर लिखता हूँ

    ‘मैं अपनी विफलताओं का

    प्रणेता हूँ।’

    युद्ध हो या हो

    एक दिन

    चलते-चलते भी

    मेरी धड़कन हो

    सकती है बंद,

    मैं बिना

    शहीद हुए भी

    मर सकता हूँ!

    यह मेरा सवाल नहीं है

    बल्कि

    उत्तर है :

    ‘मैं क्या कर सकता हूँ!’

    मुझसे नहीं होगा कि दोपहर को बाँग दूँ। या सारा समय प्रेम-निवेदन करूँ। या फ़ैशन परेड में अचानक धमाका बन फट पड़ूँ।

    जो मुझसे नहीं हुआ

    वह मेरा संसार नहीं।

    कोई लाचार नहीं

    जो वह नहीं है

    वह होने को।

    मैं ग़ौर से सुन सकता हूँ

    औरों के रोने को

    मगर दूसरों के दुख को

    अपना मानने की बहुत

    कोशिश की; नहीं हुआ!

    मेरे और औरों के बीच

    एक सीमा थी

    मैंने जिसे छलने की कोशिश में

    औरों की शर्तों पर

    प्रेम किया।

    मुझसे नहीं होगा! मैं उठकर एक बार

    खिड़की से झाँककर

    अचानक चिल्लाता हूँ।

    मैं बार-बार

    नौकरी के दफ़्तर

    और डाकघर तक

    जाकर लौट

    आता हूँ

    अर्ज़ी और अपना प्रेम-पत्र लिए

    अपने ज़माने में

    कितना बड़ा फ़ासला है

    एक क़दम के बाद

    दूसरा उठाने में!

    मगर मैंने कोई फ़ासला नहीं

    केवल अपने को तय

    —नहीं झूठ नहीं बोलूँगा—

    क्षय किया।

    मैं अकेला नहीं था!

    मेरे साथ एक और था

    जो साथ-साथ

    चलता था और कभी-कभी

    मुझे अपनी जेब में

    एक गिरे हुए पर्स-सा

    उठाकर रख लेता था।

    मैं जानता हूँ

    हरेक की नियति ही यही है

    कि कोई और उसे ख़र्च करे।

    एक आदमी दूसरे का और दूसरा तीसरे का

    दहेज है।

    जिसकी वाणी में आज तेज़ है।

    दस साल बाद

    वह इस तरह लौट आता है

    जैसे किसी वेश्या के कोठे से

    अपने को बुझाकर।

    गाकर रिझाकर

    वह क्या पाना

    चाहता था?

    शायद मैं यही

    ठीक इसी जगह

    आना चाहता था—

    बाहर समुद्र है,

    ताड़ है,

    आड़ है!

    मैं जानता हूँ

    अपने को बिछाकर

    हर आदमी

    प्रतीक्षा कर रहा है।

    जिसे करनी हो करे

    जिसे रहना हो रहे

    प्रतीक्षा के ‘क्यूँ’ में

    और प्राप्ति की गोद में,

    भुजाओं में।

    जिसे लूट का माल

    और ठगी का प्रेम

    ले जाना हो ले जाए

    नावों में

    बाक़ी लोग डाह में।

    जीवन बिताएँगे

    मल्लाहों की तरह

    बंदरगाह में।

    कुछ लोग मूर्तियाँ बनाकर

    फिर

    बेचेंगे क्रांति की (अथवा षड़यंत्र की)

    कुछ और लोग सारा समय

    क़समें खाएँगे

    लोकतंत्र की।

    मुझसे नहीं होगा!

    जो मुझसे

    नहीं हुआ वह मेरा

    संसार नहीं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 59)
    • रचनाकार : श्रीकांत वर्मा
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1992

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