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सक्करदरा तालाब

sakkaradra talab

बसंत त्रिपाठी

बसंत त्रिपाठी

सक्करदरा तालाब

बसंत त्रिपाठी

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    कचरों की किनारों और पथरीली ऊँची दीवारों के बीच

    शांत पर कभी-कभी थरथराता हुआ भी

    चुपचाप पड़ा है

    सक्करदरा तालाब

    हवाएँ जब भी उसे छूकर बहती

    नमी और सड़न की बू से भर उठती

    किनारे दूकान, सड़क, पेड़ और सड़क पार

    एक पुराना मंदिर

    मंदिर की परछाई कभी इतनी लंबी नहीं हो पाती कि तालाब के जल को छुए

    हो सकता है कि पहले कभी छूती भी हो

    जब दोनों के बीच

    वाहनों और उसके धुएँ से भरी

    यह कोलतार की पक्की सड़क नहीं बिछी थी

    अब तो मंदिर की परछाइयाँ

    बमुश्किल सड़क तक पहुँचती ही कि वाहनों के चक्के उसे लपक लेते

    शाम कुछ बूढ़े अपना बंसी काँटा डाले

    अक्सर किनारों पर बैठे दिखते

    मैंने कभी उनके पास मछलियों के ढेर नहीं देखे

    हो सकता है कि वे पास की बस्ती के उपेक्षित बूढ़े हों

    जो इस बात पर यक़ीन रखते हों कि तालाब का वैभव

    कहीं उसके तल में ही छिपा है

    जिसे वे अपने काँटे में फाँस कर निकालेंगे

    और फिर से सतह पर फैला देंगे

    कभी-कभी उनकी क्षणिक ख़ुशी को

    ध्वस्त करता हुआ

    गाद और सड़ी चीज़ों से भरा

    एक पॉलिथिन फँस जाता है

    जिसके लिए उनके पास

    बुदबुदाहटों में छिपी एक भद्दी नागपुरी गाली होती

    तालाब इतना गँदला कि प्रेमी युगल भी अब यहाँ नहीं आते

    एक बगुला अपने झुंड के साथ

    चला आता है कभी-कभी इस ओर

    हो सकता है वह पूछता हो—कैसे हो तालाब भाई?

    तालाब का वार्तालाप तो कोई क्या सुनेगा

    लेकिन कह सकता तो सक्करदरा तालाब बस यही कहता होगा—

    ’ठीक नहीं हूँ भाई, अपनी स्मृतियों के क़ैदखाने में बस ज़िंदा हूँ...’

    स्रोत :
    • रचनाकार : बसंत त्रिपाठी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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