सफ़ेद क़मीज़ : एक पहनी हुई याद
safed qamiz ha ek pahni hui yaad
एक
कभी-कभी सफ़ेद क़मीज़ के बारे में सोचता हूँ।
ऐसा अक्सर तब होता है,
जब उसे पहन घर से सुबह जल्दी निकलना पड़ता है।
अगर नौकरी
दिल्ली में न होती,
तब यह किसी क़स्बे में होती।
रोज़ सुबह बहराइच से बाबागंज,
अलीगढ़ से दिल्ली या
पयागपुर से नानपारा के सफ़र में कहीं होता।
तब चालीस किलोमीटर के लिए
कोई पैसेंजर होती।
इतनी सुबह तो रेल में लेट गया होता,
कितना तो वह बीच में खड़ी होकर,
ख़ुद सुस्ता रही होती।
लेटने से पहले
उसके पहियों की सुस्त रफ़्तार में
उतने ही सुस्त हाथों में बहुत क़रीने से
अपने बस्ते की चेन खोलकर पुरानी कतरन निकालता,
उससे ऊपर की सीट से धूल उड़ाकर साफ़ करता, तब लेटता।
लेटे-लेटे बार-बार आस्तीनों को देखता।
सोचता, बच गई। अभी पूरा दिन बचा है।
इतने पर भी बात ख़त्म न होती,
सोचता कैसे निकलेगा सारा दिन,
इसे बिन गंदा किए? कैसे खाऊँगा खाना,
किस कुर्सी पर बैठ कर सारा दिन गुज़ारूँगा।
कोई ऐसा काम नहीं करूँगा,
जिससे धूल या मिट्टी में जाना पड़े मुझे।
मन में कंधे, कोहनी, पीठ की तरफ़
झाँक कर देखने की कोई इच्छा नहीं होती।
इतने पर तय करता, नहीं सोचूँगा,
बाज़ू कितनी गंदी होगी,
कॉलर कितने गंदे होंगे,
कितने गंदे होंगे इसके रेशे-रेशे।
दो
वापस लौटने पर मन यही सब दोहरा रहता होगा,
मालूम नहीं। शायद लौटते वक़्त,
क़मीज़ के अलावा कुछ भी ध्यान नहीं रह पाता होता।
जैसे सब पिघलता रहता है
बस सोचता रहता,
क़मीज़ जहाँ से गंदी हो चुकी है,
वहाँ से साफ़ भी हो जाएगी।
धोने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगेगा आज।
यही सब
रुमाल, मोजे,
जूते, पैंट सबके बारे में सोचता
पर अभी तक कह नहीं पाया हूँ,
उनके बारे में एक भी शब्द।
कभी कहूँगा,
कैसे गंदा होता है रुमाल,
मोजे जूते में रहते हुए भी किस तरह मैले हो जाते हैं
क़मीज़ के नीचे,
कमर से शुरू होती पैंट कैसे गंदी हो जाती है।
लेकिन आज सिर्फ़ सफ़ेद क़मीज़ के बारे में
वही है,
जो इंद्रधनुष जैसी लगती है मुझे
सभी रंगों को अपने में
घोल ले जाने वाली मेरी सफ़ेद कमीज़।
- रचनाकार : शचींद्र आर्य
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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