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सात द्वार, सात जन्म, सात वचन

saat dvaar, saat janm, saat vachan

रोहिणी अग्रवाल

रोहिणी अग्रवाल

सात द्वार, सात जन्म, सात वचन

रोहिणी अग्रवाल

कोठरी के हैं सात द्वार

और चक्रव्यूह के सात जाल

बींधकर चली आओ

सात जन्म तक वरण कर लूँगा तुम्हारा

मन्वंतरों की उम्र पाकर

खोलती रही मैं द्वार

तोड़ती रही जाल

एक-दो-तीन

बार-बार।

दिगंत तक फैले आँचल का एक छोर

खूँटे से बाँध आई हूँ

नहीं था विश्वास कजरी गाय की तरह

लौट आऊँगी साँझ ढले

जानी-चीन्हीं पगडंडियों पर

खुरों के निशान पर चलते हुए।

बुढ़ा गई हूँ द्वार टटोलते

द्वारों पर लगी अर्गला खोलते

पथरा गई है देह चक्रव्यूह के व्यूह बेधते

एक-दो-तीन

मेरे ज्ञानकोष में अटे हैं बस ये तीन शब्द

नहीं जानती, कितने होते हैं सात

कितनी दूर तक चलते हैं सात क़दम

सात वचन

सात जन्म।

जानती हूँ इतना कि द्वार खोलो

तो कमरा जगर मगर आलोक से चहचहाने लगता है

पलंग के नीचे छिपी घुरघुराती बिल्लियाँ

आँखें तरेर भाग खड़ी होती हैं

हवा के संग बह आती हैं बतकहियाँ बाहर की

कोठरी में पूरनमासी के सागर का ज्वार उमड़ता आता है

यह किस देस भेज दिया है कंत तुमने

कि द्वार खुलते ही भीमकाय अँधेरा

घनघना कर लाल बनैली आँख के साथ

नोच लेता है मेरा मर्मस्थल

और पसर जाता है चहुँओर

मेरी आकाश गंगा का जल-उजास निगलकर।

सदियों के अनथक सफ़र के बावजूद

कहीं मैं दूजे द्वार पर ही

अवरुद्ध तो नहीं कर दी गई हूँ?

कोठरियों के सात द्वार

पाताल में खुलते हैं

या तोड़ी गई पहली व्यूह रचना ही

तिलिस्म बनकर करने लगी है माया-सृष्टि?

और माया द्वारों को खोलती मैं

बन गई हूँ गति में विजड़ित शै कोई?

संशय नहीं, समर्पण! सवाल नहीं, संधान!!

प्रिय चेताते हैं

सिर्फ़ सात द्वार!

सात जाल!

फिर सात जन्म हम-तुम

साथ-साथ।

प्रिय की ललकार में हाँका है

चेतन हो अर्ध नि:संज्ञ-सी मैं

हर द्वार खोलने के बाद

भरने लगी हूँ आँचल में कंकरियाँ

कि रखूँ याद

कितने तीन मिलकर बनते हैं सात।

स्रोत :
  • रचनाकार : रोहिणी अग्रवाल
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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