कविता जो लगभग कविता-सी नहीं दीखती
झींगुर की झनकार और शिशु की तुतलाहट—
लेखक ने इन पर कैसा वश प्राप्त किया है!
वैसे असंबद्ध शब्दों की यह दुरवहता
कुछ विशिष्ट सुकुमार भावना उपजाती है
लेकिन क्या यह सचमुच संभव है, खो जाएँ
इन खेलों में, मानव के स्वप्नों को तजकर?
क्या संभव है रूसी भाषा के शब्दों को
गिलगिलिया की चहचह में परिवर्तित करना
ताकि प्रकट ही हो न सके उनके भीतर से
जीवनदायी तत्व, अर्थ-ग़ौरव की महिमा?
नहीं, कपोल-कल्पना में कविता बाधक है।
कविता से क्या काम उन्हें जो करते आए
शब्दों से खिलवाड़ पहन जादू की टोपी!
जो सचमुच वास्तव जीवन जीता आया है
बचपन से ही जिसका कविता से परिचय है
बना रहेगा उसका दृढ़ विश्वास निरंतर
जीवनदायी प्रज्ञामय रूसी भाषा पर।
- पुस्तक : आधुनिक रूसी कविताएँ-1 (पृष्ठ 131)
- संपादक : नामवर सिंह
- रचनाकार : निकोलाय ज़बोलोत्स्की
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 1978
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