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नभ की ओर उठाकर चेहरा

और शीश अपना उघाड़कर

क़िस्मत का मारा यह बूढ़ा

खड़ा हुआ है दरवाज़े पर।

दिन-भर गाता रहता है वह

क्रुद्ध-दुखी उसका कातर स्वर

प्राणों पर प्रहार करता है

पथिक ठिठक जाते हैं पल-भर।

उसके चारों ओर मचा है

युवा पीढ़ियों का कोलाहल

बाग़ों में खिलखिला रहे हैं

उन्मद नील कुसुम दल के दल।

श्वेत कंदरा में जामुन की

दिवस चिलचिलाता चुँधियाता

आसमान में चढ़ता जाता

चाँदी के पत्तों पर पग धर।

लेकिन तुम क्यों अंधे नर

अश्रु बहाते हो यों झर-झर?

क्यों मधु ऋतु के मध्य व्यर्थ ही

होते हो अकांक्षा-कातर?

गत आशा का चिह्न कोई।

श्याम गर्त होगा क्या आवृत

पतझर के पीले पत्तों मे?

खुल सकेंगे नेत्र अर्ध-मृत।

किसी बड़े नासूर सदृश ही

है तेरा यह सारा जीवन

नहीं सूर्य के प्रेम-पात्र तुम

प्रकृति नहीं देगी अपनापन।

तुमने सीख लिया है जीना

चिर शाश्वत कुहरे के भीतर

सीख लिया है आँख गड़ाना

सदियों के तम के चेहरे पर।

और सोचते भी डरता

कि मैं प्रकृति के किसी छोर पर

इसी अंध की भाँति खड़ा हूँ

चेहरा नभ की ओर उठाकर।

अंतर के अँधियारे में ही

देख रहा हूँ मधु के निर्झर

उनसे हिलमिल बतराता हूँ

पर उदास मन के ही भीतर।

उफ़! कितना दु:ख होता मुझको

पार्थिव बातें देख-देखकर

आदत के कुहरे में लिपटा

हड़बड़िया मैं, दुष्ट, बेख़बर।

यों तो मेरे गीत जगत ने

गाए हैं कितने मौक़ों पर

पर जीवंत गीत रचने को

कैसे लाऊँ शब्द खोजकर?

निर्मम कविता की देवी!

ले जाती हो किधर कहाँ पर

मेरी विस्तृत मातृभूमि के

महापथों में मुझे खींचकर?

नहीं, नहीं, मैंने कब चाहा

तुमसे कर लेना गठबंधन

कभी नहीं चाहा था मैंने

मानूँ मैं तेरा अनुशासन :

मेरा वरण किया ख़ुद तुमने

बेध दिया है मेरा अंतर

तुमने ही तो मुझे दिखाया

अद्भुत चमत्कार धरती पर...

तो फिर गाओ अंधे मानव!

रात उतरती है क्रम-क्रम कर

टिमटिम चमक रहे हैं तारे

नभ में गुंजित कर तेरे स्वर।

स्रोत :
  • पुस्तक : आधुनिक रूसी कविताएँ-1 (पृष्ठ 126)
  • संपादक : नामवर सिंह
  • रचनाकार : निकोलाय ज़बोलोत्स्की
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  • संस्करण : 1978

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