एक दिन की तलाश
ek din ki talash
जी, मैं...
युवा होते-होते शिकार हो गया,
एक शब्द... अर्थबोध का।
वह उठते हुए यौवन में पीछे लगा—
नाम के आगे हो गया।
जी...
प्रतिबद्धता की कीलें जड़ दीं उसने,
हिसाब-किताब लेने लगा।
मैं हिप्पी नहीं बना।
किंतु—बाण ही प्रत्यंचा की तरह—
खिंचता रहा उम्र का गणित।
जी... मैं जीता रहा संघर्षों के ज्वार,
संकल्पों के चरण, उतार-चढ़ाव—
कि, अपना कुछ भी न रहा।
जो रहा भी—
सबका सब पक्षधर हो गया उनका,
जिन्हें रोटी कपड़ा मकान और—
निष्कंटक अनुशासित जीवन चाहिए।
उन्हें तुम भी जानते हो।
ये भी जानते हैं, मैं भी जानता हूँ।
ये सब मेरी तुम्हारी और इनका तरह के लोग हैं।
इसी दुनिया... इसी गोलार्ध... धरती के हैं—
उनका भी रक्त लाल है।
वे—सब, दुनिया से—
संत्रास खदेड़ने के लिए उठकर खड़े हो रहे हैं।
समाजवादी अर्थतंत्र, उनका शत्रु नहीं मित्र है।
वे हिप्पी नहीं बने।
वे—महेश योगी, ईसा, बुद्ध या गांधी की शरण नहीं गए।
वे चमत्कार नहीं जीते, न वे अध्यात्म मूर्तते हैं।
वे लोहे से लोहा काटते, खेतों में गुंदुम उगाते—
मिलों-कारख़ानों-खदानों में खटते हैं।
वे देश-देश में परजीवी सभ्यता से मुक्ति के लिए—
युद्धरत हैं।
मेरी तुम्हारी, उनकी तरह, वे सब असंख्य—
धरती से दारिद्रय शमन के लिए—
एक दिन की तलाश में हैं।
सुख-दुख के साथी हैं, अपने हैं।
उनके कानों में फुसफुसाओ—अपने को देखो—
उनसे आँखें मिलाओ।
राजनैतिक जटिलता से भरी अपनी और उनकी—
उलझनें सुलझाओ।
वे सब—एक दिन की तलाश में हैं।
जो... चाँद और रोटी के रिश्तों को जोड़ेगा।
- पुस्तक : कर्मवाची शब्द हैं ये (पृष्ठ 35)
- रचनाकार : शील
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 1980
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