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अलंकरण: समय, स्मृति और स्वर

alankarnah samay, smriti aur svar

दीप्ति कुशवाह

दीप्ति कुशवाह

अलंकरण: समय, स्मृति और स्वर

दीप्ति कुशवाह

और अधिकदीप्ति कुशवाह

    (एक)

    नासामुक्ता

    अनगिनत कामनाओं का शृंगार

    असंख्य बिछोहों की साक्षी भी

    नासिका की सुशोभन ढलान पर बूँद भर ठहरी रही

    उष्ण साँसों का आह्वान लिए

    नियति की संहिति में होने को विलीन

    श्वास के सबसे समीप

    रति की प्रथम आहट भी सुनती है

    और अंतिम सिसकी भी

    पद्मिनी के अरुणिम अधरों को चूमती

    वह एक दुर्लभ कस्तूरी थी

    रात्रि की चुप में बंधी अखंडित प्रतीक्षा

    जो होम होने से पहले एक बार फिर काँपी थी

    शहरज़ाद के शब्दों में सम्मोहन जगाती

    मोती की मृदुल अभिव्यक्ति

    हर कथा के अंत में जब सुल्तान का संदेह जागता

    चिराग की लौ में सिहर उठती

    इन सबसे परे कई नथें उतरती रहीं

    चंद्रबिंब से झरती ज्योत्स्नाओं के रूप में

    जो उषा की देहरी तक

    पहुँचने से पहले ही राख हो गईं

    नासालंकार मात्र अलंकार नहीं

    अभिप्राय की मोहर है

    कभी प्रेमिल अभिसार

    कभी अवश विधि के विधान की।

    (दो)

    कर्णफूल

    कानों की दहलीज पर झुके दो चंद्रमा

    जिन तक पहुँचती हैं, शब्द से पहले की अस्फुट पुकारें

    इनके दोलन में संचित हैं चाह की प्रतिध्वनियाँ

    कभी किसी अभिषिक्त रानी की

    कभी किसी नवोढ़ा की

    जिसने दर्पण में पहली बार पढ़ी

    अपनी लावण्यमई देहभाषा

    वे झूमते थे दिगदिगंत में बिजलियाँ समेटे

    शिवगंगई की माटी में अब तक गूँजता है इनका नाद

    जब घोड़े की पीठ पर सवार वेलु

    रक्त से सँवार रही थी इतिहास

    ये फूल नहीं

    खुले-अनखुले रहस्य हैं

    लय में डूबे मंत्र उच्चारण की तरह

    जो कानों में बाद में

    मन में पहले झूलते हैं।

    (तीन)

    मेखला

    राजकन्याओं की कटि पर

    धरा गया रेशमी अंकुश

    वनवासिनी के वस्त्र को

    गाँठ बन थामे रहने का सहारा

    गति और ठहराव के बीच

    संयम की वह डोर है मेखला

    जो देह को लास्य में

    और मन को तरंग में बाँधती है

    अबक्का की कमर पर लिपटा यह बंध

    जैसे लहरों ने सहेज रखे हों

    उर्मियों के उजले चिह्न

    एक जलीय मणि, चंद्रिका में जगमग

    धरती की धूल में रची-बसी

    दुर्गावती की कटिमाल

    उसकी आदिम जड़ों में अटी एक स्फुर्लिंग थी

    तरंगित हो उठती आंदोलन-सी

    देह से विलग होकर भी

    दीपशिखा सी दहकती है।

    (चार)

    यह उच्चारण के पहले का संवाद है

    ध्वनियों के जन्म से पूर्व

    धड़कन की लय पर झूमता

    हृदय की गहराइयों में डूबता-उतराता

    एक मुखर अभिमंत्र

    किसी तपस्विनी के

    त्याग में झरते रहे कंठाभूषण

    और मांगल्य की प्रत्याशा में

    सौभाग्य के क्षितिज की बुनावट बने

    यह संयोगिता की वरमाला है

    जो निर्भीक हाथों से उठी

    पुष्प की जड़ताओं को चीरकर

    मोह के उद्घोष में बदल गई

    ऐनी बोलिन की ग्रीवा पर

    अंतिम स्पर्श की तरह ठहर जाने वाली

    एक आर्द्र आकुल याद

    प्रारब्ध की शिला पर

    अनुत्तरित प्रश्न-सी फिसल गई

    यह कंठ-प्रसाधन ही नहीं

    समय के श्वासमार्ग में अटकी प्रतिज्ञा है

    जो पूरी होकर भी विस्मृत नहीं होती

    बल्कि किसी नई पुकार का

    उपसंहार रचती है।

    (पाँच)

    चूड़ामणि

    शिखर पर ठिठका कोई श्लोक

    धूप से भी उज्जवल

    हिम से भी शीतल प्रभापुंज

    जैसे कांचन किरणों में नहाया

    श्री का इंद्रनील

    जो सोहता है शिरोरेखा पर

    आभूषण नहीं तब चूड़ामणि

    एक नेत्र था

    जो प्रतीक्षारत रहा लंका के स्वर्ण

    और अशोक की छाँह के बीच

    एक अनकहे संदेश का वाहक

    लिखा नहीं गया था तूलिका से

    पढ़ा गया विरह की विकलता में

    केशीय लहरों पर बहता कोई दीपक यह

    समर्पित किसी नाम को

    जलता रहा चिरंतन अनंत काल तक।

    (छह)

    एक चक्र जो आरंभ और अंत के भेद को

    मिटा देता है

    अनुभूतियाँ बस आरोह-अवरोह में जीवित रहती हैं

    करबंध से लिपटे वलय

    कभी किसी विह्यल विदाई में होते विसर्जित

    कभी प्रथम युति का उत्सव मनाते

    वर्तुल परिधि में बंद हैं असंख्य समयरेखाएँ

    जिन पर घड़ी की बालू गिरती रहती है

    मोहनजोदाड़ो की चूड़ियाँ

    विलुप्त सभ्यता के बाहर भी साँस लेती हैं

    शोक की स्मृतियाँ भी

    कंगन में जड़ी गईं

    मॉर्निंग ब्रेसलेट की श्यामल आभा में

    बचा रह जाता था टीसता विरह

    चूड़ियों को छूती अंजुरियाँ

    स्नेह की अर्चना संजो रखती हैं

    यह काल के हस्ताक्षर की वह सुष्ठु लिपि है

    जो नित्य नवीकृत होती रहती है।

    (सात)

    बाहुबंद

    नर्मदा के तट पर धूम में दिपदिपाता था

    नील के किनारे रेत में धंसी देह से झाँकता था

    युद्ध की गर्जना में कसता बाहुबंद

    और प्रणय पलों में ढीला पड़ जाता था

    नीलाभ जल में प्रतिबिंब देखती

    कोई यक्षिणी डूबती है

    अनावृत्त कंधों पर फिसलती

    केयूरयुक्त बाहुओं की स्वप्निल गाथाओं में

    रुद्रमा की रणभेरी में अंगारे बन दहक उठे

    क्लियोपेट्रा के दुर्लंघ्य विश्वास में उतरे स्वर्णिम वशीकरण

    स्त्रीदेह से लिपटे ये अभिमंत्रित रत्नचित्र

    जो हारे, जीते गए

    बस कोमलता और कठोरता से आप्लावित

    धूप-छाँह में क्रीडारत रहे।

    (आठ)

    नूपुर

    पगडंडियों से प्रासादों तक

    चौपालों से नृत्यशालाओं तक

    अपने अंतस की हिचकियों से

    ध्वनियों के ग्रंथ रचते हैं नूपुर

    इनकी अनुगूंज में जब भी खुलता है

    विगत का पन्ना कोई

    अरावली की गोद में थिरकते पग घुंघरू बाँध

    उतर आते हैं

    अगरु-गंध में डूबी वीथिका पर

    जहाँ चरण आराधना के सर्ग रचते हैं

    नेपथ्य में बजती है मोरपंखिया बाँसुरी

    कहीं और

    श्लथ पड़ी है सेज पर थिरकन नूपुरों की

    प्रताड़नाओं के मौन में बिलखती

    बंदिशों और बोलियों से आहत

    मीठी बैरन भी हो जाती है पायल

    जब कोई अभिसारिका चाहती है

    ओस की बूँद-सी रिस जाना

    रात की साँसों में निःशब्द घुलकर।

    (नौ)

    ग्रीवासूत्र

    वक्ष पर उत्कीर्ण अलंकृत रेखा

    कंठ की लय में बंधा एक स्पंदन है

    कभी चंद्रकिरण-सी सिहरती

    कभी सृष्टि की लय में घुलती

    सुधियों की मृदुल ग्रंथि

    इसके द्रव्य में संचित हैं

    अदृश्य संकेत, सौंदर्य की सजीव मुद्राएँ

    और कहे-अनकहे की स्निग्ध रेखाएँ

    विवश यशोधरा ने इसे छोड़ा था

    संन्यास की निर्मम निस्तब्धता में

    जब अनुराग का संकल्प

    निर्वाण की चौखट पर ठहर गया था

    हर शपथ मौन की परिणति पाए

    यह आवश्यक नहीं

    ग्रीवा से लिपटे सूत्र की कणिकाएँ

    वसंत के छोर थामे

    अलक्षित प्रवाह में

    संभावनाओं के संवाद रचती हैं।

    (दस)

    मुद्रिका

    हर मुद्रिका का होता है एक वृत्त

    एक गोलाई जो लौटती है वहीं

    जहाँ से चली थी

    व्याकुल हिज्जों की चारुलता

    जो प्रिय के नाम की आराधना में

    उँगलियों पर लिखी जाती है

    यह आसक्ति का आलय है

    जो दो अस्तित्वों के बीच

    निर्द्वंद्व संवाद का सेतु बनता है

    कभी यह शकुंतला की मुद्रिका

    जिसे काल लील लेता है

    पर परछाईं में अक्षय रहता है अर्थ

    और कभी इफलैंड रिंग है यह

    एक तरफ़ गर्व, दूजी तरफ़ श्राप से बंधी हुई

    सृजन की पवित्रता और नियति की सीमाएँ

    टिमटिमाती हैं एक साथ

    जब कभी तर्क की आँधी बिखेरने लगती है

    संपर्क के तंतुओं को

    अँगूठी सहेज लेती है उनके अक्षाँश और देशांतर

    जो उसी पड़ाव पर लौट कर बताते हैं कि

    बंधनों से मुक्त होना

    संबंधों से मुक्त होना नहीं है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : दीप्ति कुशवाह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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