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    कमल, थलकमल-नारी, शय्यागत, मौलायल

    कहैत छथि पुनि बेर-बेर सभ दिन जकाँ,—

    आउ, अहाँ हमरे लग आउ,

    वरण कऽ लियऽ हमरा,

    शरण देव हम,

    अहाँ हमरे अनुसरण करू।”

    —हे कमल!

    अहाँ हमर मोह त्यागि दियऽ।

    अहाँ हमरा शरण नहि दऽ सकब।

    अहाँक सम्पूर्ण आवरण–अस्तित्व लाल अछि,

    केवल लाल टुह टुह।

    हम तँ लाल नहि रङलो नहि, उज्जर छी।

    हम अधिक उज्जर छी, साफ।

    आ, चाहैत छी आर अधिक स्वेत, धवल!

    कामना करैत छी जे उगैत रहओ दिनकर!!

    अन्हार कक्षमे एकसर ठाढ़ निर्लिप्त

    हमरा मोन होइत अछि वातायन दऽ कहि देबाक

    उत्तर, अस्वीकृति।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मैथिलीक नव कविता (पृष्ठ 69)
    • संपादक : रामकृष्ण झा ‘किसुन’
    • रचनाकार : हंसराज
    • प्रकाशन : सांस्कृतिक विभाग, सुपौल, बिहार
    • संस्करण : 1971

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