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रात्रि के विराम में

ratri ke viram mein

चंचला पाठक

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रात्रि के विराम में

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    रात्रि के विराम में

    विरह सहस्रों पग से चलता है प्रियंक!

    ऐसी गहन है भाद्रपद की निशा कि

    श्वास, प्रश्वास के पार उतरती है

    प्राण उड़ते हैं जलपंडूकों के संग-संग!

    तुम भी तो सु-भार पूर्वक स्थित हो

    इन श्वासों के आवागमन के मध्य

    जैसे वर्णों के मध्याकाश में विराजता है छंद

    कविगण गिनते फिरते हैं

    वर्ण-वर्ण मात्रा-मात्रा शब्द-शब्द

    विकल और अशांत...

    तब सहज ही देखती हूँ मैं स्वयं के वातायन से—

    तुम तो मुझमें अक्षर हो प्रियंक!

    तब, जब

    इस रात्रि के गह्वर में डूब रहा है सब

    तुम्हारी स्मृतियों की उज्ज्वल अपराजिता

    गूँथ रही अपनी वेणी में

    निकल पड़ी हूँ

    स्वप्नवीथियों सी सर्पिल इस पगडंडी पर

    आ-दृष्टि पसरी है धरती पर श्यामला हरीतिमा

    सिर्फ़ मैं जानती हूँ कि

    धान के सुपुष्ट आलय

    गदराई धरती ही सिरजती है

    पुष्पित धान्य के मूल में महक रही लौहित-गंध

    मेरे ऋतुकाल के वैभव का रहस्य

    धान के सु-हरित पत्रों ने बाँचे हैं

    उतर तो मैं रही कंठ भर नदी-जल में

    और पसर गई है नदी की पोर पोर में तुम्हारी देहगंध

    स्रोत :
    • रचनाकार : चंचला पाठक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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