मत झाँक आसमान से हसरतों से अपने घर को ओ मेरी गुड़िया
माना कि जन्मदिन आज तेरा
लड़कियों के रहने के क़ाबिल अभी भी नहीं यह देश
अभी भी
पुलिस थाने के सामने से गुज़रते समय
सत्यमेव जयते के बोर्ड को देख पड़ जाता तेरे भाई पर विक्षिप्तता का दौरा
कॉपी में तेरी लिखाई को घूरते घंटों तेरे पिता
जैसे अक्षरों के बीच से निकलकर कूद पड़ेगी तू उनकी गोद में
न यहाँ लौटने की सोच
लड़कियों के रहने के क़ाबिल नहीं अभी भी यह देश
अभी भी गुड्डा-गुड्डियों का खेल खेलते-खेलते
आँखों में फ़ेविकोल उड़ेल देता गुड्डे की भूमिका निभाता लड़का
हाथों को दबा देता पत्थरों के नीचे
अचानक हो अंधी तथा अवाक्
भयानक यातना से चीख़ने लगती सचमुच की गुड़िया
कि लाल सुर्ख़ गर्म सलाख़ में कैसे तब्दील हो गया उसका प्यारा गुड्डा
लड़कियों के रहने के क़ाबिल नहीं अभी भी यह देश
अभी भी
लड़कियों से बलात्कार के बाद जनप्रतिनिधि फ़रमाते
लड़कों का तो ख़ून ही गर्म
ग़लती का होना स्वाभाविक
हमारी संस्कृति में लक्षमण-रेखा भी तो कोई चीज़ है
उसे लाँघा ही क्यों
तो कहते धर्मगुरु
ली होती हमसे दीक्षा, बँधवाया होता धागा
किया होता अभिमंत्रित गुरुमंत्र का पाठ
छूते ही भस्म हो जाते असुर
नहीं मेरी मुनिया लड़कियों के रहने क़ाबिल नही अभी भी यह देश
अभी भी
हर बलात्कार के बाद महिला अधिकार आयोग की अध्यक्षा
एयरपोर्ट पर देती फ़ोटोग्राफर को फ़ैशनेबिल कैप में तरह-तरह के पोज़
कहती खिलखिलाकर हँसते हुए पत्रकारों से
और कितना बोर करोगे पूछ-पूछकर, कुछ जाँच-फाँच भी करने दो
दूर कहीं जेल में पहुँचती यह कूट भाषा
गूँज उठती सारी बैरकें अपराधियों के हिंसक ठहाकों से
लड़कियों के रहने के क़ाबिल नहीं अभी भी यह देश
अभी भी
सिहर उठता उस वीभत्स दृश्य को याद करके
तेरे जननांग से दारू की बोतलों के टुकड़े, कीलें और गिट्टी निकालने वाला डॉक्टर
रात भर बर्राता दुःस्वप्न में और चीख़ मारकर उठ जाता अक्सर
अपनी दुधमुँही बच्ची को फिर सीने से लगा लेता कसकर
न मेरी लाडो न
लड़कियों के रहने के क़ाबिल नहीं अभी भी यह देश
मैं जानती हूँ बेटी
दम घुटता होगा अंतरिक्ष के विराट सुनसान में तेरा
काटे नहीं कटता होगा समय
याद आता होगा अपना कॉलेज, मोबाइल और चुलबुली सहेलियाँ
पर अभी भी
इस जंगलनुमा देश में शिकारी कुत्ते दौड़ा-दौड़ाकर कर रहे बेटियों का सामूहिक आखेट
न्यायनुमा गेंद से मस्त होकर खेल रहे वकील और न्यायाधीश
चल रही बुद्धिजीवियों के बीच नूराकुश्ती
हर त्रासदी पर दूरदर्शन पर पढ़ता देश का सबसे सम्मानित व्यक्ति हृदयविदारक शोक-संदेश
सुनाई देती जिसकी प्रतिध्वनि हम माताओं को यों
कहा हो राष्ट्रीय स्वाँग के बाद जैसे कैमरामैन से फुसफुसाकर
प्रसंगानुकूल तो पहने थे मैंने कपड़े
अच्छे से उभरे न चेहरे पर दुःख और तकलीफ़ के भाव
अगर संतुष्ट न हो तो इससे भी बेहतरीन शॉट दे सकता हूँ
जा मेरी गुड़िया लौट जा उसी दुनिया में वापस
लड़कियों के रहने के क़ाबिल नहीं अभी भी यह देश।
- रचनाकार : मोहन कुमार डहेरिया
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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