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महानगर में वर्षा

mahangar mein warsha

कुंदुर्ति आंजनेयलू

कुंदुर्ति आंजनेयलू

महानगर में वर्षा

कुंदुर्ति आंजनेयलू

और अधिककुंदुर्ति आंजनेयलू

    महानगर में वर्षा

    मेरी ऊहाओं के अंचलों में मचलने वाली कविता-सी

    रिमझिम-रिमझिम बरस रही है

    आशु कविता में नागरिकों को

    आशीर्वाद के वचनों-सा

    अनंत धाराओं से युक्त अंबर कौंध रहा है

    महानगर में वर्षा

    अंबर का अनंत आडंबर! क्योंकि...

    चिकने सफ़ेद चमकते

    आईनों-सी सीमेंट की सड़कों की ओर

    गगन से गर्दन झुका कर झाँक

    अपने सौंदर्य को जल-बिंदु राशियों में संचित कर

    अनंत आकाश सदृश आनंद से

    विभोर घूमते कौंधते बादल!

    पंख खोकर भी पैर पा

    पर्वतों के पुरावर्तन-सा

    दौड़ने वाली डबल-डेकरों को देख

    गिरि शिखर भ्रांति से नीचे उतर आए बादल

    शायद फिर ऊपर जाने में अलसता हो

    शायद बहुकाल दर्शन भाग्य प्राप्ति से

    शायद उस रात को सिनेमा देख सुबह चले जाने की इच्छा से

    नीचे उतर आए बादल

    वहीं खड़े रह गए हैं, हर्ष को वर्षा में बरसाते

    बाज़ार के बीच गिरा मूर्च्छा रोगी

    जैसे घड़े के घड़े पानी पीता जा रहा है

    आसमान की ओर मुँह किए परती भूमाँ के लिए

    दस वर्षाएँ भी जब कोई गिनती की नहीं होतीं,

    ग्राम सीमाओं में वर्षाओं की पालकियों पर

    दिवि से सस्य समृद्धि को उतारने वाली वर्षा कांता

    ज़रूरत होने पर मिलने वाली सरल उधार सदृश

    नगर में अनावश्यक समय पर मूसलाधार वर्षा कर जाती है

    ऊबी नगर प्रजा की पीठ छेदित करने वाली

    धाराओं से उपहास करती है नगर की वर्षा

    स्वागत के बिना भी नगर में सुबह की वर्षा

    रात आए मेहमान-सा मस्ती से रह जाती है।

    ***

    नगर में बरसने वाली वर्षा को मालूम है

    तनखा से बचा कर छाता

    ख़रीद लेना ख़ाली बातों-सी बात नहीं

    टाट ओढ़ बाहर आना नागरिकों का काम नहीं

    भीगे ठिठुरे कर

    रसोईघर में अँगीठी के सामने बैठना और

    दूसरे ही दिन चारपाई पर पँहुच जाना...

    अपने किए को आँखों देखने की लालसा से शायद

    खिड़की से झाँकती नगर की वर्षा

    बरसती है रिमझिम-रिमझिम

    नगर की वर्षा को मालूम है

    दफ़्तर ठीक शाम के

    पाँच बजे बंद होते हैं

    पैसा वाला सुबह वर्षा के व्यवधान को देख

    ऊनी सूट पहन आया है और

    ग़रीब के पास है नहीं, कल के लिए कपड़ों की एक जोड़ी

    जाने क्यों उस समय तक के निर्मल आकाश में

    उसी क्षण छेद पड़ जाता है

    नगर की वर्षा को मालूम है

    स्लेट और पुस्तक सर पर रख

    दौड़ने वाला बच्चा

    फिसलकर कीचड़ में गिरे अथवा

    मोटी कार के पहिए उस पर गंदगी डालें

    उसकी माँ उसी पर टूट पड़ेगी

    माँ-बेटे के बीच की बात उसकी ओर झुके

    बस इसीलिए उस समय एकदम रुक भी जाती है

    गोया वह है ही नहीं

    नगर की वर्षा को मालूम है

    नागेश्वर राव तड़के ही जग कर

    ले जाने वाली सारी चीज़ें यथासंभव याद कर-कर

    अपने साथ नए ख़रीदे छाते को भी ले चला है,

    उस दिन तो एक बूँद नहीं गिराएगी;

    रात घर पँहुचकर किए वृथा श्रम पर पछताता है वह

    तब गरज-गरज कर धूमधाम से टूट विकट अट्टाहस भर

    नगर की चारों दिशाओं में कुंभ-वृष्टि कर जाती है

    नगर की वर्षा मात्र चालाक ही नहीं है

    है उसके पास छोटी-मोटी दया साथ धरम भी;

    तीन दिवस की नन्ही बच्ची को

    लाड़ से गोद में भर छाती की छाया में

    गरमी देती अस्पताल से हरी-भरी घर लौटने वाली

    जच्चा पर तो

    मात्र फुलझड़ी करेगी

    भारी बरखा नहीं

    अगस्त पंद्रह के झंडावंदन के सुअवसर पर

    शायद फल वितरण अथवा अल्पाहार की आशा में

    दो-तीन घंटे

    क़तार में खड़े नन्हे बच्चों और बच्चियों पर

    दया से हलकी बूँदाबाँदी ही करेगी

    ज़ोर की बरखा नहीं।

    ***

    नगर की सभ्यता आसानी से आत्मसात कर गए सूर्यदेव

    सुबह आकाशवाणी से तेलुगु समाचार सुन कर ही

    मौसमी हालात जब तक पाएँगे नहीं, जगेंगे भी नहीं

    वर्षा तो मूसलाधार होगी

    गोया आसमान से आँसू झर रहा है

    ज़मीं के भूखे मानुसों को देख

    सुबह से सूर्य भगवान के लिए साँस लेना दूभर हो गया है,

    रिक्शे में बैठी बुरके की सुंदरी-सा

    मुँह पर लगाए परदे हटाकर

    जाने कितनी बार लोक की ओर झाँक सका है!

    शतसहस्र किरणों का तीखपन झलकाने वाली

    निपुणता तो कम हो गई

    प्राण निकालने वाला प्रताप

    शीत के सामते सर झुका गया है

    जीवन में साधने वाले लक्ष्यों के लिए

    परिस्थितियों की अनुकूलता के अभाव में सामान्य जन-सा

    सहस्र किरणों का सम्राट दिखाई नहीं दे रहा है

    उसका रथ चल रहा है अथवा रुक गया

    आकाश को भी ज्ञात है नहीं

    सुबह शिकार के लिए ज़मीं पर है नहीं शबनम

    दोपहर को जलाना चाहता है तो बादलों का क़िला टूटता नहीं

    पति परित्यक्ता नारी-सा

    भाल पर सिंदूर लगाए बिना दुबक कर बैठ गया है दिवस

    नौकरी के छूटने पर, शुरू-शुरू में डर से

    हर सामने आने वाले के पैर पड़ कर

    सिफ़ारिश पाने की आशा में निकले बाबू के समान

    किसी एक भगवान का आश्रय पाने

    गया होगा रवि

    बच्चों को बहु स्वाद देने वाली पिप्परमेंट की गोली-सा

    कभी दोपहर को

    अपना अस्तित्व जता देता है, मुश्किल से मुँह दिखा जाता है;

    शायद खाना छूने के व्रत रखने वाली बुड्ढियाँ

    ‘देखो, वो देखो’ कहतीं, कराहतीं उसे देख-दिखाती हैं इसलिए—

    फिर शाम को भी वैसे ही बस

    बदलियों की चादर

    बहु मात्रा में रखता है वह

    पश्चिमाद्रि के अपने शय्यागृह में

    तीन बजे ही पहुँच कर मुँह ढँक सो जाता है

    नगरों की सभ्यता के

    चारों कांड पूरा पढ़ चुका है सूरज

    सुस्ती से टहल जाता तो है

    किंतु सर्दी

    शेर-सा तीन पहर अपना प्रताप दिखाकर

    हड्डियाँ चबाकर ही छोड़ती है।

    ***

    वर्षा के इंतज़ार में दस-पंद्रह दिन रह कर

    एक दूसरे के समानांतर वर्षारंभ में भुवि पर उतरी

    मोतियों के समान दो बूँदें

    टिमटिमाती-चमकती उतरती आईं

    उस रास्ते को निसेनी बनाकर

    ऊँची लहरों-सी उठी कल्पना के साथ सीढ़ियाँ चढ़ कर

    मेघावृत गगन से मेदिनी की ओर देखूँ

    महासमुंदर के बीच तिरने वाले द्वीप के समान भासित

    महानगर ठिठुर रहा है

    गगन मार्ग से फिसले एक हिम पर्वत के शतकोटि शलक

    जल-बिंदुओं में परिवर्तित हो

    मूसलाधार वर्षा बन नगर को डुबो रहे हैं

    घोंसले में सिकुडी चिड़िया-सा दुबक कर बैठा है नगर

    आकाश-वर अनेक शताब्दियों पूर्व ही

    नगर-वधु के गले में बाँधे मंगलसूत्र-सा

    चमक रहा है हुसैन सागर!

    लाल पत्थर जड़ी लौंग-सी

    बिजली बल्ब की फैलती कांति में

    कबूतर-सा दौड़ रहा है

    डाक ढोता हवाईजहाज़

    रंगबिरंगे कपड़ों में रबर के खिलौने सदृश

    इधर-उधर यहाँ-वहाँ एक-एक मानवाकार

    हिलते-डुलते दिखाई पड़ते

    किंतु एक महान् रिथरता छा गई;

    आधे घंटे की ख़ामोशी

    आकाश राजा का आक्रमण

    नगर पिचक गया

    रेलगाड़ी सीटी नहीं दे रही है,

    दफ़्तर में फाइलों ने लिखना बंद कर दिया

    हफ़्ते में एक दिन की छुट्टी का उल्लंघन करने वाले किराना व्यापारी ने

    अपने अधखुले दरवाज़े को बंद कर रखा है

    सीमेंट का छाता कौड़ी का भी नहीं रह गया

    मामूल देकर अपने को धोखा देने वाली बगल की दुकान में ही

    सर बचा रही है ट्रैफ़िक पुलिस

    चवन्नी की दूरी को सवा तक बढ़ाने की डिमांड

    वर्षा देवता के सामने रख कर रिक्शे वाले

    वरदान के इंतज़ार में बैठे है

    साइकिल पर बाँध पीतल के घड़े पर से

    कपड़े का ढक्कन पूरा हटाकर

    ठिठकता बरामदे में खड़ा है दूध वाला

    स्विच डाल कर घर की लाइट को देख

    कोने में पड़ी बेड-लाइट के भागों को

    साफ़ कर रही हैं गृहणियाँ

    सुबह तक गीले कपड़ों के सूखने की आशा छोड़

    चिंता में दुबक कर लेटी है बूढ़ी

    यौवन के बल को समेट वर्षा में एक फर्लांग पैदल चल कर

    छटाँक भर सेमंती ले आया है

    एक नव विवाहित गृहस्थ

    कल कॉलेज की छुट्टी होगी तो

    बंद कराने की शपथ ले बैठा है

    एक विद्यार्थी

    माँ-बाप के मना करने पर भी

    बेफ़िक्र, वर्षा में खेलने

    दौड़ बाहर जा रहे हैं गलियों में बच्चे

    सोचा था सब स्तंभित हो गया

    बस आध घंटे के दृश्य अनंत।

    ***

    उसी समय उतर आई एक ऊहा

    सोचा—ज़मीं पर मैं कर क्या रहा हूँ

    यहाँ मैं देख क्या रहा हूँ

    फूलों का सौदा करती खड़ी यौवनी के जूड़े से

    गुलाब की पँखुड़ियाँ पर से रेंगती

    वर्षांत में भूमि पर गिरी एक बूढ़ी जल-बिंदु

    इठलाती अपनी अनंत जन्मों की चाह पूरित हुई सी;

    तब तक उसी के साथ एक अँगुल की दूरी पर सफ़र करती

    गिरी बूँद बिजली की बल्ब के ऊपर चढ़ ऐंठ खड़ी है,

    पेड़ के नीचे अँधियारे में बेराह बेक़दम

    बिखर गई एक बूँद

    जँभाइयाँ भरने वाले एक नव-नागरिक के

    अधर पर गिरी एक बूँद

    शायद शराब की गंध पा कर

    अपने-आप को भूल नाच गई

    खिड़की में से दवा की बोतल में गिरी बूँद

    घिर कर कड़वाहट से

    पछता रही है—क्यों मैं गाँव के

    गन्ने के खेत में गिरी

    नगर की राह गलती से पकड़ चली

    सरस्वती समान मधुर एक बूँद

    गिर विश्वविद्यालय के प्रांगण में

    फैली द्युति में द्योतित हो गई

    चारमीनार की ऊँची मीनार के शिखर पर

    गिरी टिकी एक बूँद

    पा ऊँचे सिंहासन चढ़ने का घमंड

    मूछों पर ताव दे

    नगर की चारों दिशाओं पर दृष्टि दौड़ा रही है

    हाइकोर्ट भवन शिखर पर गिरी बूँद

    है चिंता-मग्न

    शायद कोर्ट के पास आना उसे पसंद ही है नहीं

    बगल की मूसी में गिरी बूँद ने अपनी नाक बंद कर ली

    शासन भवन के शिखर पर गिरी बूँद ने

    मस्ती में खिसकते हुए

    आकाश की ओर सर उठा कर

    वर्षा को ही शासित किया—‘जब रुक जा’!

    रुक गई वर्षा

    नगर की वर्षा

    यानी

    हैदराबाद की वर्षा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द से शताब्दी तक (पृष्ठ 53)
    • संपादक : माधवराव
    • रचनाकार : कुंदुर्ति आंजनेयलू
    • प्रकाशन : आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी
    • संस्करण : 1985

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