एक
वे इतने भोले होते हैं
किसी गैंग में शामिल नहीं होते
कोई नशा नहीं करते
घर-घरवालों और अपने बारे में सोचते-सोचते
एक दिन महज़ शरीर में तब्दील हो जाते हैं
वे पढ़ने आते हैं
पढ़ते-पढ़ते लड़ाकू हो जाते हैं
कुछ पढ़ाकू भी
दीन-दुनिया से कट जाते हैं
कौन-सा भूत है जो शिकारी कुत्ते-सा
उनका पीछा करता है
दौड़ते-दौड़ते वे कोटा पहुँचते हैं
जिसे जीत समझते थे
वह तो एक बूँद भी नहीं है इस संसार के लिए
तब बौद्धत्व की प्राप्ति होती है
ज्ञान से ज़िंदगी में सब पाते-पाते
सब खो गया
सिर्फ़ और सिर्फ़
देह को कमरे से बाहर निकाला गया
ज्ञान कोटा में ही रह गया
दो
वे क्या बनना चाहते थे
उन्हें नहीं पता था
जब पता चला
वे कोटा पहुँच चुके थे
एक लड़की अपने पिता की तरह बनना चाहती थी
माँ नफ़रत करती थी उसके पिता से
एक लड़का माँ बनना चाहता था
पिता के साये से दूर रहना चाहता था
छोटी-छोटी इच्छाओं में क़ैद होकर
वे यहाँ पहुँचे थे
दूसरों की सफलता से ज़्यादा ज़रूरी था
अपनी असफलता को रोकना
सफल होना मजबूरी थी
लज्जा के कीचड़ में गिरने से बचने के लिए
सफलता से पहले वर्जित था
प्रेम के फल का बढ़ना-पकना-चखना
पढ़ रही थी वह
दाँव पर लगी थी परिवार की सफलता
‘लागा चुनरी में दाग़ छुपाऊँ कैसे’
सुनते-सुनते सो गई एक पूरी गैंग
लड़कियाँ भावुक होती हैं
वह लड़की भी गई इस संसार से
जिसके सामने सारी दुनिया
अपने इलाज के लिए झुकाती सर
इतना प्यार वह अपने माँ-बाप और अमेरिका रहने वाली
आईआईटियन बहन से भी नहीं कर पाई थी!
बेचारी लड़की!
चार माएँ–पाँच बाप रो रहे थे
एक भाई चुपचाप अपनी माँ को कोस रहा था
बहन की हत्या के लिए
ख़ुद को ज़िम्मेदार ठहराते हुए
अभाव में स्वभाव ख़राब होता है
महत्वकांक्षा में व्यक्ति
सफलता से नहीं लोभ से भ्रष्ट होता है मस्तिष्क
दरअसल सारे लोग
पैसा छापने की मशीन लाना चाहते हैं
बच्चों को कोटा पहुँचाना चाहते हैं
बच्चे क्या बनना चाहते थे
उन्हें पता नहीं था।
तीन
चौदह साल की उम्र में
अकबर ने इस देश की बागडोर सँभाल ली थी
शिक्षक पिता
इतिहास की किताब पढ़कर सुनाता है
बेटा दसवीं की परीक्षा देगा
कोटा जाएगा
लड़का पिता को देखकर मुस्कुराता है
दरअसल वह अकबर नहीं
अकबर का पिता बनना चाहता है
इतिहास की किताब में जाकर
पिता खाँसते है
उनका खाँसना पूछना है—ध्यान किधर है?
वह सिर झुकाकर
पढ़ने लगता है सामने खुली गणित की किताब
उसकी इच्छा अकबर बनने में नहीं
उसके बाप बनने में है।
चार
हमारे ज़माने के व्यंग्य और अपमान
तुम्हारे ज़माने में भी
लदे रहते हैं हमारे कंधों पर बेताल की तरह
तुमने कहाँ देखे हैं हमारे घाव
घाव के अंदर रेंगते हुए कीड़े
सारे दुःख हमने झेले हैं
कष्टों को फूल
परेशानियों को धूल समझा है इसके लिए
जीवन को जीवन नहीं पानी समझा था और
पानी की तरह ख़र्च किया था तुम्हारे लिए
पानी-पानी-पानी
हाय पानी
पानी ने छीन ली ज़िंदगानी
हाय पानी
‘कोटा’ का पानी
‘जनरल’ वाले तो मरेंगे बिना दाना-पानी कहने वाले
अपने दर्द को नहीं
अपनी कमज़ोरियों को ढँकने का
एक आसान-सा पत्थर उछालते है आसमान की तरफ़
अधजल गगरी छलकत जाए की तरह।
पाँच
हमारी इच्छाओं के जंगल में
हमने भटका दिया अपने अकबरों को
दरअसल हमने सम्मान और रुआब के चक्कर में
उन्होंने चुकाए हैं जीवन
क्या करते?
हम अपनी ज़िल्लत को भूल नहीं पा रहे थे
देख नहीं पा रहे थे
आबादी और नौकरी का औसत
‘सर्वाइवल ऑफ़ दि फ़िटेस्ट’ को मंत्र की तरह पढ़ाते
भूल गए थे
हारने वाले को मरना भी पड़ता है
सबके लिए नहीं
अपने लिए जीवन की तमाम सुविधाओं की माँग ने
बनाया है हमें
हत्यारा, डकैत और लुटेरा
हम समाज को लूटते हैं
लूटते हैं देश के भविष्य को
अपने बच्चे की ज़िंदगी लूटते हुए
शर्मशार होते हैं हम
हम कोटा नहीं बनाते
तृतीय विश्वयुद्ध के लिए हथियार बनाते हैं।
- रचनाकार : निशांत
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.