ब्राह्मण का मान
ठाकुर की शान
सेठ की तिजोरी
खेत-खलिहान
मिल-कारख़ाने
कोठी और हवेली
मेरे श्रम और शोषण से
फले-फूले हैं
मेरी हिंसा और अपमान पर
खड़े हैं,
असमानता और अन्याय के
ये सारे क़िले
मेरी आँखों में गड़े हैं
इन क़िलों में बंद हैं
मेरी चीख़ें
इनके मेहराबों में सजे हैं
मेरी यातनाओं के फ़ानूस
मेरे रक्त में रँगे हैं
इनके ध्वज और
इनकी दहलीज़ों में दफ़न है
मेरा वजूद
इनकी भित्तियों पर ख़ुदी हैं
मेरे दमन और दारुण्य की
गाथाएँ,
इनके चौबारों में जले हैं
मेरे आँसुओं के द्वीप
इनके शयनकक्षों में बिखरे हैं
मेरी बहनों और बेटियों की
रौंदी गई अस्मिता के निशान, और
इनकी रंगशालाओं में गूँजता है
मेरी वेदनाओं का संगीत
इनकी चिमनियों से उठता है
मेरे अस्तित्व का धुआँ
इनकी भट्टियों में भुना है
मेरा शरीर,
इनकी महफ़िलों में मनते हैं
मेरी बर्बादियों के जश्न, और
इनके माथे पर खिंची हैं मेरी
अस्पृश्यता की लकीर
जी करता है
ध्वस्त कर दें इन क़िलों को,
चिंदी-चिंदी कर दूँ
इनका वजूद कि शांत हो जाए
मेरी अंतर की धधकती हुई
अपमान की आग और
मिल जाए
मेरे मन को सुकून, लेकिन
नहीं जाने देती मुझे वहाँ तक
मेरी चेतना,
रोक लेती है मेरे क़दमों को
बेड़ी बनकर
मेरे पूर्वजों की सीख कि
हिंसा नहीं है हिंसा का जवाब,
लेकिन किसने कब
महत्व दिया है अहिंसा को
अहिंसा है
रास्ते पड़ी मोहल्ले की कुतिया, जिसे
कोई भी, कभी भी
लतिया कर निकल जाए
नहीं करती वह प्रतिवाद
अहिंसा के कारण ही
समझा गया है मुझे भी
कायर और कमज़ोर, तभी तो
नहीं रुक सका आज तक
मेरे ऊपर होने वाले
ज़ुल्म और ज़्यादतियों का ज़ोर
गवाह है इतिहास कि
रौंदता रहा है हमेशा से अहिंसा को
हिंसा का अट्टहास
लेकिन अब
फड़कने लगी हैं मेरी भुजाएँ, और
कुलबुलाने लगे हैं
फावड़ा, कुल्हाड़ी और हथौड़ा पकड़े
मेरे हाथ, काट फेंकने को
उन हाथों को, जिन्होंने
बरसाए हैं अनगिनत कोड़े
मेरी नंगी पीठ पर,
छीना है
मेरे मुँह का ग्रास
नोचते आए हैं मुझे
भूखे बाज़ की मानिंद
अपने नुकीले पंजों से, और
डकारते आए हैं
मेरा मांस
यदि यही रहा मेरे
दमन और शोषण का हाल, तो
हरकत में ज़रूर आएँगे
मेरे हाथ।
- पुस्तक : दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 73)
- संपादक : कँवल भारती
- रचनाकार : जयप्रकाशन कर्दम
- प्रकाशन : इतिहासबोध प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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