सीखने के बाद कई-कई या एक पूरी भाषा
उस दिन पहली बार हकलाती है लड़की
बोलने में ढाई आखर।
जनम की डरी हिरनी
उस दिन ऐसी कुलाँच भरती है
कि दूब की फुनगी हो जाता है डर
और वह उसे एक गाल में ही चर जाती है
जिस दिन लड़की लिखती है पहला प्रेम-पत्र।
पारे से भी चंचल भारी मन को
सरसों के दाने की तरह
चोंच में दबाकर जिस दिन चलती है कबूतरी
उस दिन रूई के फाहे की तरह
दसों दिशाओं में उड़ती है लड़की।
प्यार के पहले दिन के लिए
कोई उम्र नहीं होती
किसी उम्र में लड़की पा सकती है प्रेम-पत्र।
कंघा, क़लम, सुई-धागा, काँटा, कुरुस
थामने के अभ्यस्त हाथ कँपकँपाते हैं बेतरह
जलती पतीली चुटकी से उठा लेने वाली उँगलियाँ
थरथराती हैं स्प्रिंगवत्
थामने में एक काग़ज़ का टुकड़ा
जैसे छूते ही होगा एक रहस्यमय धमाका
इतनी तेज़ चलती हैं लड़की की साँसें
जैसे अभी-अभी
सारी धरती की परिक्रमा करके लौटी हो लड़की।
उसी बम पर बंद कोठरी में लड़की
करती है हज़ार-हज़ार चुंबनों की बौछार
जैसे उसके सारे कील-काँटे निकाल लेगी
और चबाएगी चुइंगम की तरह।
कजरारे काग़ज़ को लगाती है सीने से
और बुदबुदाती है
बुद्धू! थोड़े मोटे हो जाओ न
काश! कि तुम मेरे हाथ का खाते
फिर उसकी गोदी में
ऐसे बैठ जाती है
जैसे एक नन्हीं-सी बच्ची
बिस्तरे में लेटकर उसके साथ
उसे कुछ ऐसा सहलाती है
जैसे ख़रगोश की पीठ।
पुचकारती है उसे दुधमुँहे बच्चे की तरह
ऐसे ममताती है जैसे
अभी-अभी निकालकर पिला देगी दूध
उस कुनमुनाते पत्र-शिशु को।
करुणा से फैल जाती है लड़की की आँखें
छोह से भर जाती है छाती
अगर कोई ले भगे उसका प्रेम-पत्र
तो होंकड़ती है लड़की
सामने पड़ने वाले पर हूँफती है।
लिफ़ाफ़े में आ रहे मारे पंख के रास्ते में
कहीं आ न जाए भूकंप
उसे कहीं भिगो न दे कोई बदली
बहा न ले कोई बाढ़
जला न दे किसी चूल्हे की आग
फाड़ न दे कोई कर्कश हाथ।
प्रिय-पाती की आस में खड़ी-खड़ी लड़की की
आँख से ही फूटा होगा
गाय गोहार का मुहावरा।
उस समय
पैर की घायल अँगुली हो जाता है लड़की का दिल
घुमा फिराकर सारी ठोकरें वहीं लगती हैं
फिर भी लड़की
सीने में छिपाती है प्रेम-पत्र
और कभी
सुहाग सेज से लेकर साँसों तक का सफ़र
तय करती है लड़की
सीने में छुपाए-छुपाए ही प्रेम-पत्र।
- पुस्तक : इसी काया में मोक्ष (पृष्ठ 81)
- रचनाकार : दिनेश कुशवाह
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2013
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