तब पुजारी ने प्रश्न किया: प्रार्थना का क्या स्वरूप है?
उत्तर मिला :
तुम कष्ट में या स्वार्थ-सिद्धि के अर्थ ही प्रार्थना करते हो। उचित है कि तुम पूर्ण
आनंद की स्थिति में भी उसी तन्मयता से प्रार्थना करो।
क्योंकि प्रार्थना का अर्थ ही अपनी आत्मा को विश्वास के संपर्क में लाना है।
यदि प्रार्थना के माध्यम से तुम्हें अपने मानस के अंधकार को बाहर बिखेर कर ही
संतोष प्राप्त होता है तो निश्चय हो अपनी अंतरात्मा के प्रकाश को व्यापक करने में भी
तुम्हें अनुपम उल्लास प्राप्त होगा।
और, अगर आत्मा में प्रार्थना की उत्कंठा उठने पर तुम्हें रोने की ही प्रेरणा होती है
तो उचित है कि तुम्हारी आत्मा तुम्हें प्रार्थना के लिए तब तक पुनः-पुनः प्रार्थना-विमुख
करे, जब तक तुम रोना भूलकर हँसते हुए प्रार्थना करना न सीख जाओ।
जब तुम प्रार्थना करते हो, तो तुम ऊँचे उठकर उन महती आत्माओं से भेंट करते हो
जो उस क्षण प्रार्थना-रत हैं और जिनसे प्रार्थना-वेला के अतिरिक्त कभी भेंट नहीं हो
सकती।
इसलिए परमदेव के उस अदृश्य मंदिर में तुम्हारा गमन केवल मिलन-लालसा से ही
होना चाहिए।
क्योंकि देवालय में यदि तुम केवल आकांक्षा बनकर ही जाओगे तो तुम्हें वह प्राप्त न
होगा।
जो लोग मंदिर में अपने को अधम घोषित करने के लक्ष्य से ही जाते हैं, उनके उत्कर्ष
में भी प्रभु की सहायता प्राप्त नहीं होती!
और यदि देवालय के इस प्रवेश का अर्थ परार्थ भिक्षा माँगना ही है तो भी तुम्हारी
प्रार्थना नहीं सुनी जाएगी।
तुम्हारे लिए तो इतना ही पर्याप्त है कि तुम उस अदृश्य मंदिर में प्रवेश करो।
मैं प्रार्थना योग्य शब्दों की शिक्षा देने का अधिकार नहीं माँगता।
प्रभु हमारे शब्दों को नहीं सुनते—केवल तभी सुनते हैं जब वे स्वयं भीतर बैठकर
तुम्हारे होंठों से उन शब्दों को बुलवाते हैं।
अगम सागरों, सघन वनों और पर्वतों की प्रार्थनाओं को भी मैं नहीं सुना सकता।
लेकिन तुमने तो गीत के जन्मस्थान पर जन्म लिया है, चाहो तो तुम स्वयं उस गीत
को अपने हृदय की धड़कनों में सुन सकते हो।
यदि तुम रात के गाढ़े मौन में कुछ सुनने की कोशिश करोगे, तो उन्हें यही प्रार्थना
करते पाओगे :
—हे प्रभो! हमारा अस्तित्व तुम्हारे अस्तित्व पर ही निर्भर है। तुम्हारी ही तो यह
अभिलाषा है, जो हमारे मन में जाग रही है।
—तुम्हारी ही तो यह कामना है, जिसकी हम कल्पना करते हैं।
—हमारे अंतर में यह तुम्हारी ही तो प्रेरणा है, जो हमारी रातों को दिन बनाती है;
तिमिर को प्रकाश देती है। तिमिर-प्रकाश दोनों तुम्हारे ही हैं।
—हे अंतर्यामी! हम तुमसे क्या माँगे? मन में आने से भी पहले तुम तो हमारे
मनोरथों को जानते हो।
—हमारे मनोरथ तुम्हीं हो—हम तुमसे तुम्हीं को माँगते हैं। जब तुम हमें अपना कुछ
अंश प्रदान करते हो, तो मानो हमें सब कुछ दे देते हो।
- पुस्तक : मसीहा
- रचनाकार : ख़लील जिब्रान
- प्रकाशन : राजपाल एंड संस
- संस्करण : 2016
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