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प्रथम और अंतिम

pratham aur antim

अनुवाद : शंकर लाल पुरोहित

रक्षक नायक

रक्षक नायक

प्रथम और अंतिम

रक्षक नायक

और अधिकरक्षक नायक

    होंठ को होंठ सोचा था

    मगर, लगा शराब के गिलास में

    तैरता बर्फ़ का टुकड़ा

    ओस की नदी बन बह गया,

    अतीत से भविष्य की ओर

    मेरे वर्तमान को विमूर्त कर गया।

    अपने बिगड़े सिर पर देखता मैं अमृत सुराही

    अपने जन्मगृह में दिखती जलती सिगड़ी

    आँखों का आकाश बन गया

    पल-भर में निरवधि काल

    सुना है प्रीत में हो जाता पतन

    रति में विस्मृति की इति होती

    पर मैं ऊँची उड़ान में,

    जहाँ शेष है

    मेरा भी वहीं शेष है।

    सब हुआ आँख के आगे,

    सात नदी तेरह सागर घट में भर गए

    फिर भी अधूरा था घट,

    आँखों ने जिसे कहा

    आखर वह दिख रहा दुर्लभ दृश्य-सा

    समूची शून्यता मेरे आलिंगन में

    उसमें चौदहों ब्रह्मांड कहीं

    तैरते फेन-से

    उसमें चक्कर काटता समय

    बंधन के आनंद में।

    मैं जैसे साध्य चौंसठ योगिनी का

    सबका आदि मध्य और अंत।

    इसके बाद और कुछ था,

    देह विदेह

    कुछ भी था।

    मानो सब ले गया मैं

    या सब मैं हो गया।

    अब केवल एक अफ़सोस रह गया

    किसे कहूँ, आह!

    मैं तुम्हारे प्रेम

    प्रथम और अंतिम पुरुष!

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 321)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : रक्षक नायक
    • प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
    • संस्करण : 2009

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