मेरी अरण्यानी! मुझे यहाँ से वापस अपनी धरती
अपनी शाश्वती के पास लौटना ही होगा!
ताकि मैं—
मात्र एक व्यक्ति
केवल एक कवि न रह कर
अपने समय की सबसे बड़ी घटना बन सकूँ—
एक कविता!
कविता—
जब केवल विचार होती है।
तब वह
सत्य का साक्षात्,
तब वह
परम-पुरुष की लीला
तब वह
आत्म-उपनिषद् होती है,
पर, जब वह
भाषा के भोजपत्र पहन लेती है।
तब वह
आनंद के मंत्र
आसक्ति के पद
तन्मयता के कीर्तन
विनय की प्रार्थना
और लालित्य के गान के
अपराजित हिमालय तथा अक्षत उपत्यकाओं से उतरती हुई
जलते मानवीय मैदानों में पहुँच कर
विराट करुणा
पीड़ा मात्र बन जाती है।
मेरी अरण्यानी!
मेरी इस वैष्णवता को भी परीक्षा देनी होगी
मेरी इन प्रार्थनाओं को भी
अपने समय
और कोटि-कोटि लोगों के बीच
एक कविता
एक घटना
एक मनुष्य-सा घटित होना ही पड़ेगा।
युद्ध के अठारह दिनों के रक्ताभिषेक के बाद ही
कृष्ण की वैष्णवता
इतिहास का वासुदेव बन सकी थी।
शतानक हुई इस पृथिवी
और संत्रस्त लोगों के पुनः उत्सव होने से अधिक
न कोई मंत्र है।
और न वैष्णवता।
मनुष्य का कविता हो जाना ही उत्सव है।
इसलिए मेरी अरण्यानी! मुझे यहाँ से वापस अपनी धरती
अपनी शाश्वती के पास लौटना ही होगा!
पांडवों के कीर्ति-स्तंभों जैसे भोजपत्रो!
ऊर्ध्वमनस् के योगियों जैसे देवदारुओ!
गायों की त्वचा जैसे चिकने और संस्पर्शी हिमनदो!
मैं अपने पर से उतार रहा हूँ
हिम के ये मलमली चीवर।
वनस्पतियों के वल्कल
औषधियों के ये अंगराग
ब्रह्मकमल की यह व्यक्तित्व-गंध
नदियों के ये यज्ञोपवीत
हवाओं की ये माधवी रागिनियाँ
और एकांत में धरोहर-सा रखे जा रहा हूँ।
हिमालय का यह इंद्र-मुकुट।
बादलों हवाओं, ग्रहों-नक्षत्रों में
अहोरात्र संपन्न होने वाला।
यह राजसूय-यज्ञ भी छोड़े जा रहा हूँ।
मेरी अरण्यानी! इतना वैराट्य
इतनी पवित्रता लेकर
कोई भी हाट-बाज़ार में नहीं जा सकता।
इतिहास और राजनीति में दग्ध हुए।
मनुष्य मात्र को
अब केवल कविता की प्रतीक्षा है।
कविता का लोगों के बीच लौटना
मनु के लौटने जैसा होगा।
कविता का लोगों के बीच लौटना
एक अविश्वसनीय घटना होगी
इसलिए मेरी अरण्यानी! मुझे यहाँ से अपनी धरती
अपनी शाश्वती के पास लौटना ही होगा!!
मैंने सूर्य को अर्घ्य दिया ही इसलिए था, कि
उसकी तेजस्वी सूर्याएँ—
नित्य मेरी गलियों में
इस धरती पर आकर
मनुष्य, पशु, पक्षी, फूल-वनस्पतियाँ बनकर उगें।
नित्य एक शब्द-उत्सव
पेड़ों पर चिड़ियाँ बनकर
घर-आँगन में भाषा बनकर
और एकांत में प्रिया बनकर संपन्न हों।
धरती, सूर्य की सुगंध हो जाए, पर
किसने अपमानित कर दिया है मानवीय देवत्व को?
जीवन की कुल-गोत्रता को?
नहीं—
मनुष्य से लेकर दूर्वा तक के अपमानित मुख पर
मेरी वैष्णवता!
मेरी कविता की लिखनी होगी।
एक गरिमा
एक पवित्रता
एक उत्सव।
मनुष्य या दूर्वा
किसी के भी हँसते हुए मुख से बड़ी
न कोई प्रार्थना है।
न कोई उत्सव है।
और न स्वयं ईश्वर ही।
मेरी अरण्यानी!
युधिष्ठिर की भाँति आग्रह करना ही होगा, कि
मुझे अकेले नहीं।
पूरी मानवता के लिए
सृष्टि मात्र के लिए स्वर्ग का प्रवेश स्वीकार होगा
इससे कम नहीं।
इसलिए मेरी अरण्यानी! मुझे यहाँ से वापस अपनी धरती
अपनी शाश्वती के पास लौटना ही होगा!!
चलो मेरी वैष्णवता!
मेरी प्रार्थना! मेरी कविता! चलो—
इस पृथिवी पर वनस्पतियाँ बनकर
सृष्टि की भाषा बनकर चलो,
प्रत्येक चलना अवतार होता है,
धूप, सूर्य का।
और नदियाँ, बादलों का अवतार ही तो हैं।
सृष्टि मात्र को
मनुष्य मात्र को इतिहास और राजनीति नहीं
एक कविता चाहिए।
व्यक्तियों, घरों, दीवारों और भाषाओं—
सबसे कहना पड़ेगा कि
उतार फेंको ये आग्रहों की वर्दियाँ
पोस्टरों के वस्त्र—
ये मनुष्यता के अपमान हैं।
भाषा को दोग़ला बना देने वाले ये भाषण—
भाषा को गाली बना देने वाले ये नारे—
अपने स्वत्व और देह पर से नोंच फेंको
जो कि गुदनों की तरह
तुम्हारे शरीर पर गोद दिए गए हैं।
मेरी वैष्णवता!
एक कविता,
एक कदंब-सी उपस्थित होओ।
कविता जब प्रार्थना हो जाती है
कविता जब मनुष्य हो जाती है
तब वह
इस पृथिवी की
साधारण जन की रामायण हो जाती है।
मनुष्य मात्र में कविता अवतरित हो।
इसके लिए मेरी अरण्यानी! मुझे यहाँ से वापस अपनी धरती
अपनी शाश्वती के पास लौटना ही होगा !!
लौटना ही होगा!!
- पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 106)
- संपादक : प्रभाकर श्रोत्रिय
- रचनाकार : श्रीनरेश मेहता
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2015
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