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पिता कभी नही गए मॉल में पिक्चर देखने

एक बार गए भी तो

चुरमुरहा कुर्ता और प्लास्टिक का जूता पहनकर

अँग्रेज़ी आने वाली शक्ल भी साथ ले गए थे

लिहाज़ा ख़ुद पिक्चर हो गए

कई लोगों ने उनकी हिक़ारती समीक्षा की

और नहीं माना आदमी

पिता की रेटिंग तो दूर की कौड़ी माने।

दालान से लेकर गन्ना मिल के काँटे तक

जो खैनी हमेशा साथ रही

जिसे वह अशर्फ़ी की तरह छिपाकर रखते थे

पेट के ऊपर बनी तिकोनी जेब में

मॉल के दुआरे पर ही छीन ली गई

माया के इंद्रप्रस्थ में निहत्थे ही घुसे पिता।

फ़र्श उनकी पीठ से ज़्यादा मुलायम था

माटी सानने के अभ्यस्त पाँव रपटने को ही थे

कि तलाशने लगे कोई टेक

अजीब जगह है यह

दूर-दूर तक कोई आधार ही नहीं दिखता

फिर खिखिआए कि

मॉल में बाढ़ नहीं आती जो

हर दो हाथ पर बल्ली लगाई जाएँ।

रंगीन मछलियों की तैरन देखी पर

रोहू, मांगुर नहीं कर पाए

ठंड में खोजने लगे गुनगुनाती धूप

हर पाँच मिनट में पोंछ ही लेते गमछे से मुँह

पसीना कहीं नहीं था पूरी देह में

पर उसकी आदत हर जगह थी।

भूख लगी तो थाली नही गदौरी देखने लगे पिता

ऐसी मंडी वह अब तक नहीं देख पाए थे

भुने मक्के का दाम नहीं बताएँगे किसी को

वरना पूरा ज्वार बोने लगेगा भुट्टा।

मॉल के अंदर का दृश्य इतना उलट था

खेत के दृश्य से

कि बिना स्क्रीन में गए पलट कर बाहर भागे पिता

मैंने रोकने की कोशिश की

पर वह उस कोशिश की तासीर समझते थे सो

नहीं रुके।

पिता जीवन भर खेत, खैनी और चिन्नी में ही रहे

मॉल में गुज़ारे समय को वह अपनी उम्र में नहीं गिनते।

स्रोत :
  • रचनाकार : अखिलेश श्रीवास्तव
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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