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पिछली सदी की आख़िरी रात को

pichhli sadi ki akhiri raat ko

रमाशंकर यादव विद्रोही

रमाशंकर यादव विद्रोही

पिछली सदी की आख़िरी रात को

रमाशंकर यादव विद्रोही

और अधिकरमाशंकर यादव विद्रोही

    क्या जवाँ रात है,

    क्या हसीन रात है,

    कोई भूला हुआ शख़्स याद रहा है,

    एक मंज़र था, तनकीह नक़्शा था एक,

    एक मिटता हुआ अक्स याद रहा है।

    छोड़िए, छोड़िए याद के मरहले,

    आपको तो जाने क्या याद रहा है,

    अब बहुत लग चुके रात के कहकहे,

    ये सुबह हो रही है, आफ़ताब रहा है।

    तुम उधर देखो कि पूरब है जिधर,

    एक सैलाब-सा लाल-लाल रहा है,

    आसमाँ के फ़लक से उतरता हुआ,

    सरज़मीं की तरफ़ इंकलाब रहा है।

    रोशनी हो रही है किरण फूट रही है,

    और पकी धान की बालियाँ हिल रही हैं,

    हसीं सरज़मीं! नाच दो! नाच दो!

    बाँसुरी की तरह से हवा बज रही है।

    आसमाँ के फ़लक पर चढ़ा जा रहा है,

    साँझ सा लाल सूरज बढ़ा जा रहा है,

    दोपहर हो गया, क्या कहर हो गया,

    एक सदी के बराबर पहर हो गया।

    एक क्षण ही सही, एक लम्हा ही सही,

    सबको ऐसा लगता कि समय सो गया,

    लाश है, लाश है, ये समय लाश है,

    ये सदी आख़िरी साँस है गिन रही,

    और प्रकृति, साँझ की आरती के लिए,

    फूले हुए फूल है चुन रही।

    जो कली हैं अभी जो खिली ही नहीं,

    भला वे कैसे नैवेद्य बनने चलीं,

    पासबाँ, बाग़बाँ, तू ज़रा ग़ौर कर,

    क्यों मची लूटे, क्या आँधियाँ चल पड़ीं?

    रोज़ ही एक सूरज जनम ले रहा,

    रोज़ ही एक सूरज दफ़न हो रहा,

    ये जनम और मरण तो सनातन है पर,

    ख़ून ही ख़ून कैसे कफ़न हो रहा।

    मेरे देवता अब बहुत हो चुका,

    आदमी के लिए रास्ता छोड़ दो,

    मैं गुनहगार हूँ मुझको दे दो सज़ा,

    तुम गला काट लो, मेरा सिर तोड़ दो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : नई खेती (पृष्ठ 61)
    • रचनाकार : रमाशंकर यादव विद्रोही
    • प्रकाशन : सांस, जसम
    • संस्करण : 2011

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