एक
जिन शहरों में तुम्हारी बनाई
ऊँची अटारियों की पाँतें चकाचौंध कर रही हैं
वहीं कुछ दिन रुक पाने के लिए
एक कोना भी नसीब नहीं है तुम्हें
जिन लोगों के कोठार
तुम्हारे ही उपजाए अनाजों से भरे हुए हैं
उन्हीं से अन्न की एक पसेरी भी नहीं निकल पा रही है
तुम्हारे अभागे बच्चों के लिए भी।
दो
जिन शहरी लोगों को उठाने में
तुमने अपना शरीर ही गिरवी रख दिया था
अब तुम्हें उबारने के लिए
उनके हाथ में ज़रा भी जुम्बिश नहीं
जिनकी ज़िंदगी को स्वर्ग जैसा बनाने के लिए
तुमने रौरव जैसे नरक सहे थे
अब उन्हीं की घातक घृणा दृष्टि भी सह रहे हो तुम।
तीन
तुम शहर में क्या फँसे
देखते-देखते गाँव भी तुम्हारे हाथों से छूट गया
दुर्भाग्य के मारे तुम अपनी डोंगी छोड़कर
दूसरों के छेदों से भरे जहाज़ पर बैठ गए
जिस नगर में सुखी जीवन की खोज में आए थे तुम
विडंबना है कि वहाँ तुम्हें इज़्ज़त की मौत भी नसीब नहीं।
चार
यहाँ तुम्हारे सरल-तरल बंधु नहीं
यहाँ तो हृदयहीन निठुर मालिक लोग विराजते हैं
यहाँ कोई दया से भर कर तुम्हारा पालन नहीं करेगा
तुम तो यहाँ सस्ते मजूर हो
दुर्भाग्य तुम्हें दूर ले आया
मृगतृष्णा ने तुम्हारी मति हर ली
ठीक से जान लो
संवेदनाओं से भरा गाँव नहीं है,
ईंट पत्थरों से भरा शहर है यह।
पाँच
बहुत पहले जिसे छोड़ दिया था
वह गाँव अब तुम्हारी पहुँच से और भी दूर हो गया
सारी उमर जिसकी सेवा की
वह अहितकर शहर ही पत्थर हो गया
कमनज़र भ्रष्ट नेताओं से भरे
इस हतबल देश में तुम्हारा क्या भविष्य है?
टूटे सपने वाले तुम लोगों के लिए, हाय
सारे संसार में कहीं कोई सहारा नहीं।
- रचनाकार : बलराम शुक्ल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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