तुम जो देखते हो ग़रीब की ठठरियाँ और उसमें निहार लेते हो तुम्हारा सौंदर्यबोध
तुम्हें चाहिए एक ढाँचे में बदलता हुआ मनुष्य
जिससे तुम दिखा सको संवेदना
पर जिसके मुँह से न भूख निकले
न प्यास
और न रोज़ी
तुम जो बैठते हो लेके क़लम की कुल्हाड़ी
ताकि बुआई वाले के छाले वाले हाथ मशाल न थाम लें
और जला न दें बरसों की तुम्हारी इस सड़ी गली व्यवस्था को
तुम फ़रेबी हो
और तुम्हारी कहानियाँ तुम्हारे फ़रेब की ढाल
इसलिए तुम लिखते जा रहे हो
उनके हवाले से प्रेम-पत्र
जिनमें वे अपने छाले, अपने ज़ख़्म और अपने निशान
प्रेमिका के केश की तरह सुघर समझते हैं।
तुम नक़ली हो
और इसलिए ‘नैरेटिव’ की आड़ में
दुत्कारते हो हर किसी को
जो बात कर रहा है कि कुछ बीस उँगलियों में दस पे फोकचे
और बाकी दस में अँगूठियाँ क्यूँ हैं?
तुम्हें वो फोकचे और उनसे बहता मवाद
दोनों तस्वीरों में फ़्रेम कराने हैं
जिससे अँगूठी जड़ी हथेलियाँ उन्हें सहलाते हुए
‘उफ़्’ कर सकें।
एक औरत है
जिसकी बीस से अधिक पुरुष ख़ाकी पहने
बोटियाँ नोच रहे हैं
तुम्हें उस औरत से भयानक सहानुभूति है
मगर तुम चाहते हो कि वो ढूँढ़ ले अपना मुक्ति-मार्ग
चुपचाप
बिना किसी शोर के उठे
तुम जानते हो जड़ना कविता की चाबुक प्रतिरोध की आवाज़ पे
तुम्हें नुकीले दाँत और नाख़ून दोनों छुपाने आते हैं
इसलिए तुम बोलते भी नहीं अपने नाम में
बल्कि गाड़ते हो दस्तावेज़
समय की दहलीज़ में
जिनमें एक भूखा बच्चा, एक नंगी औरत और एक गोलियों से सनी लाश
ऊँची आवाज़ में चीख़ रहे हैं :
‘‘भूख की बात बंद हो’’
‘‘देह की बात बंद हो’’
‘‘हत्या की बात बंद हो’’
- रचनाकार : अतुल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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