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हर घर तब रोया था

जब बिगुल बजा आज़ादी का

बर्बादी का

और किसी अनदेखी आज़ादी का...।

हर घर तब रोया था

जब उसे पता चला

कि सरहद पार से

वह नन्ही परी-सी लड़की

अब कभी नहीं पाएगी...।

हर घर तब रोया था

जब उसमें रहते लोग

ज़ालिम ख़ौफ़ से

शरणार्थी हो गए

और जाते समय

अलविदा तक नहीं कह गए...।

हर घर तब रोया था

जब उनमें

ऐसे इज़्ज़त लूटी गई

सँभाला था जिन्होंने उसे

अहसास के पर्दों के भीतर...।

हर घर तब रोया था

जब उसे निर्मित करने वाले

काट दिए गए

और लटकाए गए उनके शीश

ख़ून सने बरछों पर...।

हर घर तब रोया था

जब घर की बुज़ुर्ग महिलाएँ

वहाँ से जाने के लिए ज़िद करती रहीं

और घर की दीवारों को बाँहों में भरकर

मरते दम तक सिसकती रहीं...।

हर घर तब रोया था

जब उसके सिर से

'अल्लाह' का सेहरा

उतारकर दूर फेंक दिया गया

और सुनहरे शब्दों में

‘वाहेगुरु' लिख दिया गया...।

हर घर तब रोया था

उन घरों के लिए

जो सरहद से परे रह गए

और फिर इस देश के

घेरे में नहीं पाएँगे...।

अब घर बहुत ख़ामोश है

अब उन्हें मालूम है कि

इन घरों में रहने वाले

हमें महज़ पत्थर समझते हैं

तरंगहीन पदार्थ मानते हैं...।

सचमुच अब घर में

मरने के लिए विवश हैं...।

स्रोत :
  • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 693)
  • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
  • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2014

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