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परछाइयाँ

parchhaiyan

शिव कुमार गांधी

शिव कुमार गांधी

परछाइयाँ

शिव कुमार गांधी

 

एक

रोशनी के अतिशय परावर्तनों ने चीज़ों पर आपस में इतनी 
रंगीन परछाइयाँ फैलाईं एक-दूसरे पर 
कि ताज्जुब नहीं 
एक रंग में हाथ डालो तह में मटमैला धब्बा दिखे 
इतनी चीज़ों की परछाइयाँ थीं कि देह-धब्बे-सी दिखती है 
रोशनी का विज्ञान नहीं करता रंगों में परिवर्तित 
देह में जुटी हुई चीज़ों को 
कि किसी चीज़ पर रोशनी परावर्तित हो 
और वह बदल जाए रंगों में। 

दो

‘कि तुम्हें ऐसा ही होना है’ 
पिता का यह महावाक्य विस्तार बनाता हुआ जमाता जाता है 
मस्तिष्क में वाक्य की ध्वनि की परछाइयाँ 
आप किसी स्टैंड पर खड़े बस यूँ ही कर रहे हैं बस का इंतज़ार 
कि किसी उन्मुक्त पंछी को देख कर अचानक पीछा करती 
वाक्य की परछाइयाँ दिखती हैं 
बस में आराम से मिली सीट पर बैठ घिरी उदासी में सोचते हैं 
छोटे-छोटे रंग बड़ी परछाई में दबे आपस में लोगों को सिर्फ़ धब्बे 
जैसे दिखते होंगे 
पिता हैं कि फिर भी खोज ही लेते हैं अपने ध्यान नहीं दिए गए वाक्य को 
और ऐसी मुद्रा बनाते हैं कि अभी कोई जादू करने वाले हैं 
कि अभी चीज़ की चीज़ परछाई की परछाई, सारे भेद खुल जाएँगे 

आप इतनी बार पिता को देख चुके होते हैं अलग-अलग दृश्यों में 
खोजते और कहते अपने वाक्य को 
कि वे सभी दृश्य आपस में मिले हुए अतीत के धब्बे दिखते हैं 
जिन पर एक पंछी बैठा होता है 
जो अभी-अभी बस से उतर रहे व्यक्ति के ऊपर से गुज़र कर गया है 
कुछ उन्मुक्त-सा...

स्रोत :
  • रचनाकार : शिव कुमार गांधी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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