देवी दीप्ति प्राप्त करने की अमर तृषा लेकर मन में,
पागल-सा मैं घूम रहा था मरुस्थलों में, निर्जन में,
एक दूत स्वर्गीय विभा से सयुत सम्मुख प्रकट हुआ,
मेरे सारे तप, श्रम, संयम, साधन का फल निकट हुआ।
उसने अपनी कोमल उँगली से छू दी मेरी पुतरी,
लगा कि जैसे निशागमन पर नींद पलक पर हो उतरी,
और सामने मेरे चमकी भव्य भविष्यत् की रेखा,
भीत गरुड़ की भाँति फाड़कर आस उसे मैंने देखा।
उसने मेरे कान छुए तो ऐसा मुझको ज्ञात हुआ,
अंबर से शत-शत वज्री का जैसे साथ निपात हुआ,
और सुना मेरे कानों ने फिर नभ का कंपन थर-थर,
सुना अधर में उड़ने वाले नभ दूतों के पर का स्वर,
सुनी उदधि के उर की हलचल जिसमें चलते हैं जलचर,
सुना रसा से खींच रहे हैं रस कैसे तृण दल-तरुवर।
झुककर मेरी ओर, हाथ अपना फिर मेरे मुँह में डाल,
उस नैसर्गिक दिव्य दूत ने ली वह मेरी जीभ निकाल,
जिसमें लिपटे थे युग-युग के झूठ, दोष, निंदा के पाप,
और बीच मेरे अधरों के, जो कि रहे थे भय से काँप,
एक साँप की दुहरी-तीखी जिह्वा उसने दी बस डाल,
दिव्य दूत के हाथ हो रहे थे मेरे लोहू से लाल।
फिर उसने तलवार उठाकर मेरा सीना चाक किया
औ' मदस्पंदित मेरा दिल दूर काटकर फेंक दिया,
हुई इस तरह से जो ख़ाली मेरी छाती की कारा
बंद कर दिया उसमें उसने एक दहकता अंगारा।
ऐसा परिवर्तित, मृत-सा था विस्तृत मरु में पड़ा हुआ
कि सुन गगन की गिरा गंभीरा सहसा उठकर खड़ा हुआ—
“उठो, और मेरी वाणी से दिग्दिगंत को ध्वनित करो,
उठो, प्रेरणा बल से मेरे जल-थल खड़ी पर विचरो।
कहीं रुको मत, और जहाँ भी मानव का अंतर पाओ,
मेरे संदेशो की ज्वाला उसके अंदर धधकाओ।
- पुस्तक : चौंसठ रूसी कविताएँ (पृष्ठ 43)
- रचनाकार : अलेक्सांद्र पूश्किन
- प्रकाशन : राजपाल एंड संस
- संस्करण : 1964
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