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पहाड़

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अर्पण जमवाल

और अधिकअर्पण जमवाल

    मुख्य द्वार के ठीक सामने,

    आकाश के शून्य में,

    बर्फ़ की झीनी चादर ओढ़े,

    खड़ा रहता है धौलाधार!

    उसका चुंबकीय आकर्षण मुझे

    हमेशा खींचता रहा अपनी ओर,

    हर सुबह हर शाम उसे देखते हुए बीतती है,

    मैं नए घर की सबसे ऊँची छत पर 

    चढ़कर उसे देखने की कोशिश करती,

    और जब दिख जाता है,

    उसका कहीं कोई कोना 

    तो बच्चों सी चहक उठती हूँ,

    बचपन से लेकर अब तक

    धौलाधार जीवन में वैसे ही बसा रहा,

    जैसे सुबह शाम प्रार्थनाओं में ईश्वर!

    मैं सौंपना चाहती हूँ,

    पर्वतारोहियों को, वर्षों से संजोए 

    अपने विस्मय और कौतूहल,

    ताकि महसूस सकूँ,

    तुम्हारी दिव्यता का अनहद!

    फलाँगना चाहती हूँ,

    तुम्हारे और अपने बीच की अलंघ्य दूरी को

    एक ही उड़ान में, किसी चील की मानिंद, 

    नाप लेना चाहती हूँ, 

    तुम्हारी दुरुह ऊँचाई अपने क़दमों से,

    घुटनों के बल सरकते हुए उस शिशु की तरह

    जो निसैनी के सबसे ऊपरी पायदान पर पहुँच कर,

    ख़ुशी से झूम उठता है।

    इसी चाह में…

    मैं बारहा बढ़ती हूँ तुम्हारी ओर,

    और हर बार आहत हो कर लौटती हूँ,

    तुम्हारी जर्जर, देह देखकर

    पर्यटन के विकास के नाम पर

    गाड़ दी गईं हैं, असंख्य इमारतें

    तुम्हारी देह पर।

    यहाँ वहाँ, नज़र आते हैं तो बस

    मशीनों की खरोंचों के निशान,

    और तुम निर्जीव खड़े दर्द में कराहते हो,

    तुम्हारी कराहटों से नहीं टूटती 

    किसी की नींद!

    भौतिकता के काले चश्मों में,

    नहीं दिखती किसी को तुम्हारी जर्जर देह!!!

    अगर कुछ दिखता है तो सिर्फ़ अपना स्वार्थ !

    अब मैं तुम्हें सिर्फ़ दूर से देखती हूँ,

    और देखती हूँ कि कैसे तुम!

    चिंतातुर गड़रिए की भाँति,

    बर्फ़ की चिलम सुलगाए बैठे,

    बादलों के धुएँ के छल्लों में,

    अपनी असहनीय पीड़ा को भुलाते हो!!!

    मैं रहूँ या ना रहूँ !

    पर तुम यूँ ही खड़े रहना, अनंतकाल तक।

    मेरे मुख्य द्वार के सामने… 

    और मेरी संततियों को,

    असीसते रहना, 

    किसी पूर्वज की तरह!!!

    स्रोत :
    • रचनाकार : अर्पण जमवाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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