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पाख अँधेरा बा

paakh andhera ba

आद्या प्रसाद 'उन्मत्त'

आद्या प्रसाद 'उन्मत्त'

पाख अँधेरा बा

आद्या प्रसाद 'उन्मत्त'

समझि-बूझि के चला सँघाती पाख अँधेरा बा।

राह अजानी सिर तक पानी जोखिम भरा सफर,

लीलै खातिर मुह फैलाए बड़े-बड़े अजगर,

मुह मा राम बगल मा छूरी घाती अगल-बगल

फन काढ़े विषधर फुफकारै काटे कहाँ लहर।

परग-परग पर घात लगाए खड़ा लुटेरा बा,

समझि-बूझि के चला सँघाती पाख अँधेरा बा।

सरहद प्रै बारूद बिछाए दुसमन ताकत बा,

जाफर के घर गद्दारन कै खिचरी पाकत बा,

देस पार से केउ रहि-रहि के डोरी खींचि रहा

कठपुतरी अस केहू थिरकि के नंगे नाचत बा।

जयचंदन की मिली भगत से आगा घेरा बा,

समझ बूझि के चला सँघाती पाख अँधेरा बा।

आपन-आपन डफली सबकै राग निराला बा,

सबके दिल मा खोट दाल मा सबके काला बा,

काली करतूतन के बल पर काला धंधा बा

एनके पीछे दौड़ लगावै जग अंधा बा।

धोखेबाज दगाबाजन कै चहुँदिसि रेरा बा,

समझि-बूझि के चला सँघाती पाख अँधेरा बा।

लिहे धरम कै धुजा करम से बना कसाई बा,

भाई के खूने का प्यासा आपन भाई बा,

सारे जग का नेत बतावै बस मनमानी बा

दइयउ कै डर नाहीं ओनकै अजब कहानी बा।

छमा दया उपकार भूलि बस मेरा-तेरा बा,

समझि-बूझि के चला सँघाती पात्र अँधेरा बा।

मुल्ला पंडित गुरू पादरी एक से एक बड़े,

घर गरीब का बरै धधकि के तापैं खड़े-खड़े,

आग लगावैं सगर दौड़ि फिर दौड़े लै पानी

एनकी तिकड़म भरी चाल मा जूझैं अग्यानी।

मजहब के आँधर कोल्हू मा सुधुआ पेरा बा,

समझि-बूझि के चला सँघाती पाख अँधेरा बा।

जइसन पावै वइसन लूटै सबकै इहै धरम,

तौ आँख मा पानी केउके नाहीं हया सरम,

पइसा बरे पिसाच बनि गवा पूर कसाई

ओकरे बरे हँसी ठट्ठा बस पीर पराई आ।

स्वारथ की नगरी मा बस तिकड़म कै डेरा बा,

समझि-बूझि के चला सँघाती पाख अँधेरा बा।

आँखि खोलि के चला कि नाहीं फिर पछताये का,

देस धरम दुइनौ से जाए आँस चुआए का,

दुसमन जब्बै अवसर पाए कसर उठाये का

बिगड़ी बात बने ना केतनौ रोए गाए का।

फैला चला ससुर के नाती दूर बसेरा बा,

समझि-बूझि के चला सँघाती पाख अँधेरा बा।

स्रोत :
  • पुस्तक : माटी औ महतारी (पृष्ठ 32)
  • रचनाकार : आद्या प्रसाद 'उन्मत्त'
  • प्रकाशन : अवधी अकादमी

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