1
आजकल चिड़िया तक नहीं बैठती
पंख की कंपन लगती सूँ-सूँ
आत्मीय शत्रुओं के कोलाहल-सी
शब्दहीन धूसर आकाश को
ताकती रहें सूखी शाखा की शिराएँ।
बड़ा दुःख संचित हो चुका कोथली में।
प्रकांड अविश्वास लहरा रहा साँसों में।
अब चलो। बहु बेटे उड़ गए
कोरापुट सा संबलपुर
निष्ठुर मूढ़ता के कपट पाशे में पराजय ही सार है।
ऐसी बुरी हालत से
वरन अज्ञातवास भला,
चाहे गाँव हारें या शहर
जिधर जाओ दिग्विजय
गुड़िया खेल की है।
बूढ़े के चेहरे पर कभी मेघ
कभी सूर्यास्त की धूप
टूटे-फूटे कमरे में धुँधला सादा पलस्तर।
उसे क्या विश्वास?
नई घास खा रही बछिया-सा
देखता रहे सबको
ऊपर सिर उठाए।
धुँधलाई आँखों में अपनी वह क्या
कुछ ढूँढ रहा?
पिंजरे में पंछी क्या खाता?
पिंजर तोड़ जाता कहाँ?
पेड़ का सबसे सतेज और सब्ज़ पात
बिना हवा के झर जाता कैसे?
ये सवाल पूछकर बेज़ार न करो।
आँधी-बरसा में केवटहीन नाव-सा
दूर बह जाता वह।
2
बूढ़े की रसिकता की क्या बात!
पोपले मुँह की हँसी,
सहारे की लाठी तेल भींगी,
झुर्रीदार चिकनी चमड़ी को सहेज रखे,
सफ़ेद धोती।
और किसकी परवाह उसे
फेरीवाले को आवाज़ या बाघ की दहाड़?
बूढ़ा बैठा उँचे बरामदे में।
कटी बकरी की तरह झुलाए
अपना फूला पाँव।
पर आदनी की खोपड़ी-सा फीका आकाश
नीचे पसरा विराट खेत, केवड़े की बाड़
आम के पेड़ और ग्रामदेवी का नीम।
क्रमश: सब लौट आते आँख की सीमा में
सब याद आते, औरतों के उसाँस और
विषय-तृष्णा में क्षय प्राप्त आयु
बचपन लें धर्म-धन संचय की
कंठस्थ प्रतिज्ञा।
क्रमशः सब अदृश्य होता
और आख़िर में तुम्हारी आँसू भरी चमकती आँख की बात
सुनने से पहले जहाज़ लगता
किसी अनजान उपकूल पर।
अकेली चिड़िया एक
हाथ पकड़ लेती और खिलखिलाती हँसी में
अचानक ग़ायब हो जाती पास के घने जंगल में।
- पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 168)
- संपादक : शंकरलाल पुरोहित
- रचनाकार : नित्यानंद नायक
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2009
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