निष्कृत
nishkrit
घुमावदार अँधेरी सड़कों को छोड़ते हुए मैंने अपनी हत्या के लिए की गई
सभी साज़िशों को नए सिरे से हाशिए देने आरंभ कर दिए हैं और
दोनों हथेलियों को कसकर बाँध तुम्हारे संबंध में सोचना
प्रारंभ कर दिया है
नीले, पीले, सफ़ेद, काले रंगों में : घूमना शुरू कर दिया है
टूटे खंडित मक़बरों में और क़ुतुबमीनार के आस-पास उगे झंखाड़ों में।
अकेले होने पर भी यात्राओं का अर्थ रहता है और मुझे लगा है यह अकस्मात्
ही झाड़ी के पीछे दुबके ख़रगोश को पा जाने जैसी उपलब्धि है।
तुम्हारी आवाज़ की ख़रख़राहट कितनी भौंडी थी। इसका एहसास मुझे
अक्सर तुमको ढूँढ़ते समय हुआ है।
मैंने
रात को सोते समय ब्रेज़ियर को ढीला करत हुए सोचा है
कि मुझे हमेशा से अलग रहने की आदत है
और तुम्हारे या किसी के होने या
न होने से
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
मेरी
माँ ने अपनी मुट्ठियों में कस लिया है मेरा रिसता हुआ मस्तिष्क और
गिद्धों के कटे हुए डैने आकाश से गिरने प्रारंभ हो गए हैं।
मुझे लगा है
अब
हमेशा के लिए सोचना बंद कर देने का वक़्त आ गया है।
पहाड़ों से फिसलता हुआ वक़्त मुझे जिन शहतीरों की चोटियों पर पटक
देता है वह तुम्हारे अदने मस्तिष्क का गोश्त नहीं है।
मुझे अपनी भौंहों को सहलाते हुए लगा है
कि लड़कियाँ कभी-कभी बड़ी उत्तेजक होती हैं,
लेकिन जाँघों के भीतर जाती हुई
सीढ़ियों से मुझे कभी किसी तिलिस्म की गंध नहीं आई
और न ही मुझे लगा कि
एक बदबूदार तहख़ाने के शोर को अपनी विरासत समझकर
समाज, सभ्यता और संस्कृति को महत् सिद्ध किया जा सकता है।
जिस्म में जितनी भी दरारें हो सकती हैं : वे सब
घाव हैं या
कबाड़ी की दुकान पर पड़ी पुस्तकों का ढेर।
तुम्हारे बनमानुषी पंजों के निशान
केवल तुम्हारी पत्नी के शरीर पर देखे जा सकते हैं
या फिर तुम्हारे दोस्तों की भाव-मुद्रा में।
यह सब इसलिए नहीं हुआ कि
तुम अब समझदार हो गए हो और
समय को अपने साथ घिसटने की सोचने लगे हो
या तुम्हें अपनी लड़की का विकृत चेहरा ख़ूबसूरत दिखाई देने लगा है या
तुमने चुनाव लड़ने को सोच ली है : यह सब इसलिए
हुआ कि तुम्हारे कंधे पर
पड़े किसी हाथ की दस्तक का अर्थ बदल गया था और तुम्हारे भूरे और
काले बालों में सनसनी हुई थी; तुम्हारे मक्कार दोस्तों ने आँख मारते हुए
तुम्हें पूर्वजों की नस्ल पहचानने का इशारा किया था
और तुम्हारा दिमाग़
बेपेंदी का लोटा हो गया था।
तुम्हारी हथेलियों में खुदी हुई पीढ़ी की हरारत कितनी कमज़ोर है इसे
जानने के लिए शब्दकोश में शब्द नहीं देखने पड़ते : केवल कुछ
मरे हुए कीड़ों की टाँगों को इकठ्ठा करना पड़ता है
और तितली के
पंखों के लिए नया एलबम बनाना पड़ता है।
बहुत बार मुझे लगा है तुम्हारी जगह
किसी उजबक को प्रेम करना अधिक
अच्छा होता, अधिक फूलने की बात होती किसी भैदेसी
क्रांतिकारी कम्युनिस्ट की हथेली को दबा देना या किसी कुत्ते की
हिलती हुए पूँछ को मसल देना, तुम्हारी सामंती त्वचा का रंग देखकर
मुझे अक्सर भौंचक रह जाना पड़ता है :
तमीज़ और सभ्यता की क़मीज़ मेरी और फेंककर अक्सर तुम अफ़सोस
ज़ाहिर करने के लहजे में कहते हो
कि बच्चे की निकर फट गई है, लड़की जवान हो रही है और पत्नी का
मासिक धर्म साल में तीसरी बार फिर रुक गया है और तुम्हारे पेट
की आँतों में दर्द उठने लगा है
और मुझे नहीं जाना चाहिए था
अमेरिकन लाइब्रेरी में किताबों को सूँघने, क्योंकि तुम्हारे
ख़याल में उसका अर्थ
व्याभिचार के अतिरक्त कुछ हो
ही नहीं सकता।
मुझे
लगा है मेरे लिए होना चाहिए
वियतनाम में एक और युद्ध,
फ़्रांस में एक और क्रांति
मैंने बहुत बार सोचा है अच्छा होता यदि वास्कोडिगामा न ढूँढ़ता ग्लोब का
चपटा हिस्सा और
न होता प्लासी में युद्ध,
मेरे देश को मिला होता इंक़लाब
गांधी के सत्याग्रहों से नहीं, आज़ाद हिंद सेना की दनदनाती गोलियों से।
अब मुझे सत्य, अहिंसा, दया शब्द मात्र भेड़िए के नाख़ूनों की याद
दिलाते हैं।
मैंने
ढूँढ़ लिया है अत्याचार का पर्याय,
केवल मादा मूर्ख
उछलती है गेंद की भाँति आकाश तक और नीचे गिरकर चपटी धरती
हो जाती है : सपाट।
दरअस्ल, बुद्धिजीवी की विवशता होती है अकर्मक सोचना और सोचना
और सोचना और सोचना और
सोचना, सोचना, सोचना, सोचना, सोचना : और मृत्युपर्यंत
नकराते रहना अपने अस्तित्व को,
अपने संदेह को,
अपने सच को,
अपने होने को,
यदि
तुम्हारे चेहरे के अस्तर को उधेड़ भी दिया जाए तो पंगु और
बिलबिलाते आभिजात्य समाज भय से
तुम अपना चेहरा पहचानने से इनकार कर दोगे। यूँ लगता है
पाँव धँस गए हैं
क़ब्र की गीली और चिकनी मिट्टी में। तमाम प्रलापों
के परिप्रेक्ष्य में उभरता है
तुम्हारा पीला संत्रस्त कायर चेहरा
और दुबक जाता है गंधाते
पेटीकोट के नीचे।
तुमसे मुक्ति पाने कि लिए आवश्यक हो गया है
कि मैं आकाश में
बना दूँ एक दरार
और मान लूँ
कि इस पुंसत्वहीन कायर देश और फूहड़ शताब्दी के लिए
औरत का पर्याय
पुंगारती हुई गाय, मिमियाती हुई बकरी और मरी हुई मक्खी के
अतिरिक्त कुछ और
नहीं हो सकता।
- पुस्तक : महाभिनिष्क्रमण (पृष्ठ 31)
- रचनाकार : मोना गुलाटी
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