निरंजना शृंखला की कविताएँ
nira.njna shri.nkhla kii kavitaa.e.n
एक
हम खड़े हैं निरंजना के तट पर
हम सदी के उस मुहाने पर खड़े हैं
जहाँ से हम देख रहे हैं
महाबोधि के झड़ते हुए पत्तों को
हम अंतर्विरोधों के साये में हैं
एक तरफ़ निरंजना है तो दूसरी तरफ़ कलिंग
एक में ही दोनों हैं
दोनों तरफ़ समर्थन भी है और विरोध भी
बुद्ध होते तो शायद कहते
यह दुःख का कारण है
सम्यक् नज़रिए का त्याग
कभी फलदायी नहीं हो सकता
हम निरंजना के तट पर देख रहे हैं यह सब
हम देख रहे हैं आस-पास के बिखरे हुए दुःख
हम दुःख समेटते-समेटते बिखर रहे हैं
हम बिखरे हुए दुखों को समेटने के लिए फिर खड़े हो रहे हैं
जैसे वह बढ़ आया था निरंजना की ओर
हम भी चले आ रहे हैं उसी ओर
जब वह बढ़ आया था
तब उसके मन में न संशय था
न ही अनिश्चितता
वह जानता था
जब सब कुछ त्याग दिया गया हो
तो दुःख कहीं भी जगह नहीं बना सकता
हमारी बातों में भले ही न हो बुद्धत्व की बातें
लेकिन हम जानते हैं उस रास्ते को
उसकी सारी बातों से अवगत
हम खड़े हैं
निरंजना के तट पर साझेदारी के लिए
हम खड़े हैं और
हमारे खड़े होने में ही है हमारा सम्यक् अस्तित्व।
दो
हम बनेंगे निरंजना
यह एक भिक्षुक के चीवर का रंग है
जो हमारी आँखों में उतर रहा है
यह दुःख से उपजा सत्य है
जो हमारे हुनर में ढल रहा है
यह निरंजना का तट है
जो हमारी बातों में घुल रहा है
हम खड़े हैं यहाँ
हमारे खड़े होने में बुद्धत्व का विश्वास है
(कलिंग होगा कहीं तो वह पराजित होगा।)
अशोक होगा कहीं
तो वह सिर यहीं झुकाएगा।
तीन
अशोक लौट रहा है कलिंग से
अशोक लौट रहा है कलिंग से
उसकी आँखों में रुदन है
वह अपनी चमकती हुई तलवार में
अपना ही चेहरा देख कर डरा हुआ है
अशोक लौट रहा है
कलिंग से बेचैन होकर
वह अपने सारथी से कहता है
मुझे जल्दी ले चलो निरंजना के तट पर
निरंजना के मुख पर हल्की-सी मुस्कान है
वह जानती है किसी भी सदी में
किसी भी राजा को
इस तट से होकर गुज़रना ही होगा।
- रचनाकार : अनुज लुगुन
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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