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निःशब्द ध्वनि-चित्र

niःshabd dhwani chitr

रविशंकर उपाध्याय

रविशंकर उपाध्याय

निःशब्द ध्वनि-चित्र

रविशंकर उपाध्याय

और अधिकरविशंकर उपाध्याय

    ढलती रात में आसमान के नीचे

    ध्रुव तारे को निहारती

    मेरी आँखें सप्तर्षियों पर जा टिकी

    जो चारपाई के पाए से जुड़े

    एक डंडे की तरह चुपचाप टिके हुए थे

    हवा बार-बार आकर झकझोरती

    और चाहती कि मेरा निहारना बंद हो जाए

    मगर मेरी आँखें अडिग थीं

    लेकिन इसकी भी तो सीमा है

    जैसे इस असीम में हर किसी की सीमा है

    पता नहीं कब मैं नींद में डूब गया

    मगर आँखें बंद नहीं हुईं

    (कहते हैं आँखें तो एक ही बार बंद होती हैं

    वे हमेशा खुली रहती हैं

    कभी बाहर तो कभी भीतर की ओर)

    इसे पता नहीं कब हमारे पूर्वजों ने

    सपने की संज्ञा दे दी

    आज वही सपना मेरा दोस्त था

    और मैं उसके साथ निरुद्देश्य चला जा रहा था

    कि अचानक नदी किनारे पहुँच गया

    मेरे और सपने के बीच कोई बात नहीं हो रही थी

    वातावरण बिल्कुल शांत था

    नदी का पानी भी शांत ही था

    हाँ, कभी-कभी हलचल होती

    जब नदी के अरार से

    मिट्टी टूटकर छपाक-छपाक गिरती

    और नदी में समा जाती

    जैसे कोई पुराना रिश्ता हो उससे।

    मैं इस दृश्य को देखने लगा

    उस पल यह नदी मेरे लिए अनजानी थी

    बस मेरा परिचय

    उस नदी के साथ बह रहे रेत कणों से था

    और टूट-टूटकर गिरनेवाली इस मिट्टी से

    जो अब मुझसे ओझल हो रही थी

    लेकिन इस ओझल हो रहे पल में भी

    मिट्टी के टूट-टूटकर गिरने का दृश्य

    मेरे भीतर अटका हुआ था

    कि मेरी आँखें बाहर की ओर खुल गईं

    और मेरा मित्र सपना

    मुझसे विदा लेकर जा चुका था

    ठीक इसी वक़्त ऊपर से एक तारा टूटकर गिर रहा था

    इसी समय गिर रही थी

    चाँदनी, ओस की बूँदें और पेड़ से पत्ते

    इन सबको गिरते देखते हुए

    मैं उस मिट्टी के गिरने को

    देखना चाह रहा था

    जो अब भी अँटकी थी मेरे भीतर।

    स्रोत :
    • पुस्तक : उम्मीद अब भी बाक़ी है (पृष्ठ 76)
    • रचनाकार : रविशंकर उपाध्याय
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 2015

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