मेरी कविताएँ आजकल
meri kawitayen ajkal
मैंने कहा था न तुम्हें
मेरी कविताएँ आजकल
मुट्ठी भर आनंद माँगने लगी हैं मुझसे
मुझे कुछ आनंद दो—बदले में
मैं तुम्हें खुशियाँ दूँगा।
फिर भी मैंने कहा था तुम्हें
मेरी कविताएँ
अँजुरी भर प्रेम माँगने लगी हैं मुझसे
मुझे कुछ प्रेम दो—बदले में
मैं तुम्हें जीवन दूँगा ।
अंततः मैंने कहा था—
मुझे वहाँ पहुँचना ही है, अतः
इस वक्त उजाला चाहिए,
वह उजाला जो तुम्हारे पास है
थोड़ा सा भी हो, दो
मैं तुम्हें ज़िंदगी दूँगा—ज़िंदगी!
कितनी बार टूटी है विश्वास की सड़क
जहाँ सदा मैं तुम्हारा ही नाम जप कर
चला करता था
वही एकांत जगह, जहाँ
बैठकर हम दो कविताएँ सुना—सुनाया करते थे
कविता खोते/ढूँढ़ते थे
कविता लिखते और फाड़ते थे
कविता फाड़कर फिर लिखा करते थे
वास्तव में हम कविता में ही जीते थे
कविता में रोते और कविता में मुस्काते थे
कैसे स्पर्श कर चली जाती थीं कविताएँ
याद करो, हम कितने आत्मविभोर होते थे...!
तुम प्रतीक थे उस वक्त,
मैं प्रतिभा
तुम जीवन थे, मैं प्राण
तुम आकृति थे, मैं आकृष्ट
ख़्वाबों में भी देखता हूँ आजकल मैं
तुम्हें याद आता है या नहीं
किस तरह विलुप्त हुआ वह समय
कितनी दूरी है हमारे बीच आज
तुम तो याद करती होगी, ऐसा लगता है आज भी
पर मैं भी याद करता हूँ, ऐसा नहीं लगता
किसी का छिना हुआ, किसी और का मन!
ऐसा ही है मन, फिर भी
कविता वैसी नहीं है आजकल
कविता तो स्पर्श ही नहीं कर पाती आजकल
कविता पहाड़ी मंद समीर की तरह बहती हो
ऐसा नहीं लगता मुझे
कविता तो तराई की ‘लू’ की तरह बहती
अनुभव करता हूँ आजकल
कविता चुभती है
कविता से आनंद मिला हो
ऐसा नहीं लगता, आजकल
कविता का मन मानो पत्थर हो गया है
क्योंकि कविता को हिम सदृश पिघलते
वर्षों हुए, नहीं देखा
'कविता में जियेंगे/कविता को रखेंगे ज़िंदा'
इस तरह सोच भी न सका हूँ
हृदय/मन को तो समय के थपेड़ों ने
बना दिया है संवेदनहीन, उफ्!
जीना तो सिर्फ़ 'हिप्पोक्रेसी'।
कविता जी पाएगी क्या ऐसे में?
कविता तो मेरे अन्दर आत्महत्या करते हुए
बेचारी मरना चाहती है आजकल।
अब न समझो पहले की तरह
यह मन मेरे साथ ही सूखा पड़ चुका है
तुमने कहा था—
चिट्ठियों में, शब्दों से —'क्यों आरम्भ
किया था इस यात्रा को तुमने?
इस राह से?–पता है क्या तुम्हें?
यहाँ लक्ष्य है, न आवास
तुम्हारी यात्रा तो सिर्फ एक आवेश है...!!'
तुम पूछते होगे—
वह कविता में ही जी रहा है आज भी
पर, कविता में रमते हुए,
कविता में ही समाते हुए आज भी
कविता को आनंद न दे सका मैं
कविता को उजाला भी न दे सका
कविता ने माँगा था प्रेम, दे न सका मैं
आजकल कविताएँ मेरे दिल को टटोलकर
मुझसे विष माँग रही हैं
कविताएँ मेरे अन्दर आत्महत्या का प्रयास
कर रही हैं।
कितनी कविताएँ आँखें चुराकर भागने की
ताक में हैं आजकल मुझसे
उफ्! मैं कितना घुलमिल गया हूँ
कविता के साथ—
कि इनसे अलग ही नहीं हो पा रहा हूँ मैं।
हाँ, कविताएँ मुझे स्पर्श नहीं कर पा रहीं, पर
तुम्हारे एक-एक शब्द स्पर्श करते हैं आजकल
कवितामृत माँगकर नहीं पिऊँगा, हरगिज़ नहीं
कविता से विष माँगकर पिऊँगा बदले में।
जीएँ भी क्या?—आग से नष्ट इस भू-भाग में उनिऊँ उगाकर
जीएँ भी कैसे?—इस अनुर्वर भू-भाग में सिरू उगाकर
जीएँ भी क्यों?—चोटी और पहाड़ तले इस तरह दबकर
कुंठा और अभाव में
कहाँ ढूँढ़ें ज़िंदगी को भरे बाज़ार में
कैसे कविता जन्माएँ इस अवस्था में
यह अवस्था, इस वक्त मेरे आगे प्रतीक बन जाए तो
मैं क्या करूँ?
जब कि मेरे अंदर की प्रतिभा मर चुकी है।
याद होगा—
मैंने तो यह भी कहा था तुमसे—
मेरी कविताएँ मुझसे
आनंद माँग रही हैं।
मैंने तो यह भी कहा था तुमसे—
मेरी कविताएँ मुझसे
प्रेम और उजाला माँगने लगी हैं।
मैंने तो तुम्हें यहाँ तक कहा था—
मेरी कविताएँ
आजकल मेरा मन देखकर
मेरा दिल टटोलने लगी हैं।
- पुस्तक : इस शहर में तुम्हें याद कर (पृष्ठ 59)
- रचनाकार : वीरभद्र कार्कीढोली
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2016
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