अब तक तो राहत की साँस ले रहे हैं
ab tak to rahat ki sans le rahe hain
वीरभद्र कार्कीढोली
Virbhadra Karkidholi
अब तक तो राहत की साँस ले रहे हैं
ab tak to rahat ki sans le rahe hain
Virbhadra Karkidholi
वीरभद्र कार्कीढोली
और अधिकवीरभद्र कार्कीढोली
आँसुओं के कुएँ में सूरज की किरणें
उत्साहित आँखों के साथ
इस शहर की बूढ़ी सड़क पर
बेतहाशा चल रहे हैं
ये आंदोलित जुलूस।
मुझे आश्चर्य होता है—
क्या देख रही हैं वे मौन आँखें
क्या सोच रहे होंगे वे त्रसित मन
कैसे घिर रहे होंगे—हृदय, धड़कनें!
क्या कह रहे हैं—जुलूस
ख़ुद इन्हें मालूम नहीं
कहाँ जा रहे हैं, और
कहाँ पहुँचकर किस ओर मुड़ना है
ज़मीं पर नहीं आँखें
सिर्फ़ आकाश को देखकर चल रहे हैं/ पर
इन जुलूसों का लक्ष्य तो आकाश नहीं!
रिमझिम वर्षा हो रही है
शाम होने को है
हठात्, चुपचाप क्यों रुक गए ये जुलूस?
ओह, चींटियों का झुंड देखकर!
इसीलिए, अब मुझे
अपनी जन्मभूमि को याद कर
लौटने का मन नहीं है!
वे कभी जुलूस को देखकर आनंद मनाते हैं
कभी अपने ही अड़ोस-पड़ोस में आग लगाकर
खुशियाँ मनाते हैं।
क्यों न विक्षिप्त होगा मेरा मन
मज़दूर/श्रमिकों की ख़ुशियों को जलाकर रातभर
कितने उत्तेजित होते हैं
उत्तेजित वे लोग
रातभर दुखियों को और दु:ख देकर
बेसहारों को घरबारविहीन बनाकर
उजाले में ही पुन:
दुखी और बेसहारों के संचालक बनते हैं।
तुम ही कहो—
मुझे क्यों न दु:ख होगा फिर
कुछ दिनों से उत्तप्त है सूरज
दुर्गंधित इस शहर में
सूरज के डूबते ही भीड़ बढ़ती
अनजाने लोगों की।
क्षणभर बाद ही इन दीवारों पर
पोस्टर लगते हैं।
क्षणभर बाद ही इन दीवारों पर
न जाने किस-किसके सिर टँगते हैं!!
अब, तुम ही कहो—
यहाँ खड़े लोग
इन पोस्टरों को देखें, या
इन शिरोच्छेद लोगों के चेहरे पढ़ें।
कभी इस शहर में बारिश होती है
कभी इस शहर में आग लहती है
कभी इस शहर में धूप होती है
कभी इस शहर में चाँदनी बिखरती है
क्षणभर में भीड़ हरकत करती है
दुकानें बंद होती हैं, घर के किवाड़-झरोखे
बंद होते हैं
क्षणभर में ही सन्नाटा होता है
हाल पूछने पर
कहते हैं लोग—
अब तक तो
राहत की साँस ले रहे हैं!
- पुस्तक : इस शहर में तुम्हें याद कर (पृष्ठ 73)
- रचनाकार : वीरभद्र कार्कीढोली
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2016
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