नई उलझन
nai uljhan
क्यों इतनी उद्विग्न हैं औरतें आजकल
क्यों छिपा कर नहीं रखतीं अपने दुख पहले जैसे
क्यों चाहती हैं फींचना गंदे लत्ते-कपड़े सार्वजनिक रूप से
लिपटी रहती थी सकुचाई-सी इनकी आत्मा जिनमें
कितने प्यार से चलता था सारा कार्य-व्यापार जीवन का
सुबहें होती थीं कितनी साफ़-सफ़ेद
दोपहरें आरामदेह
लालसाओं में लिपटी कैसे डूब जाती थी शाम रात के आग़ोश से
किस आसानी से अपनाई जाती थीं फिर वे
सुखद होता था कितना वासनाओं का साम्राज्य तब
कुछ लोग समझ नहीं पा रहे
कि समय बदलता है
और साथ में उसकी झक भी
- पुस्तक : नींद थी और रात थी (पृष्ठ 53)
- रचनाकार : सविता सिंह
- प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
- संस्करण : 2005
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