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आज नदी

भर रही है एक

निस्तब्ध आह!

ले रही है झपकी

गहरी नींद के इंतज़ार में।

रेत के भीतर डूबती नदी

(समस्त मानवीय उत्सर्गों की

संवाहिका,

धरातलीय उच्छ्वासों की

स्थापिका,

कठोर प्रस्तरों और खुरदरे भू-भागों से

गुज़रने वाली नदी)

अब चमकीले पृष्ठों पर

नन्ही-नन्ही उँगलियों के

भीतर रेखाचित्रों में उतर रही है,

जैसे पहाड़ों पर उतरती हैं

सूरज की लाल-लाल किरणें।

जब इधर से गुज़रती है नदी

तो बतिया आती है

सुख-दुख तटों की झोंपड़ियों में

फड़फड़ाने लगते हैं मुँडेर के तंबू

दे आती है एक थपकी

मुरझाई फ़सलों को

और चमक उठती हैं

रुआँसी गायों की पुतलियाँ।

लेकिन अब किनारों में नहीं खुलेगी नदी

अब तो किताबों के

पन्नों पर गहरे रंगों में खिल उठेगी नदी।

स्रोत :
  • पुस्तक : उम्मीद अब भी बाक़ी है (पृष्ठ 32)
  • रचनाकार : रविशंकर उपाध्याय
  • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
  • संस्करण : 2015

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