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गाय इसी वैतरणी की मैं*

gaay isi vaitarnai ki main*

राकेश रंजन

राकेश रंजन

गाय इसी वैतरणी की मैं*

राकेश रंजन

और अधिकराकेश रंजन

     

    रक्त-अस्थि से, केश-कीच से पटी पड़ी यह नदी अछोर
    जोंक- केंचुए इसके वासी, इसमें जंतु विचरते घोर

    गाय इसी वैतरणी की मैं, हाय! यही मेरी तक़दीर
    परतारण हित नरक भोगती, सदा भरमती, सहती पीर

    गले धरम का पगहा बाँधे, लादे करमों का जंजाल
    हारी आज तुम्हारी गैया, अब तो दया करो, गोपाल

    मेरी दुखती पूँछ पकड़कर करें लोग वैतरणी पार
    पर इस महानरक से, प्रभुजी ! कैसे हो मेरा उद्धार?
    ___________________

    * वैतरणी नदी : पौराणिक मान्यता के अनुसार यह पृथ्वी और यमलोक के बीच में स्थित है और इसमें ख़ून, हड्डियाँ, बाल, मल आदि भरे हैं। यह दुस्तर और भयानक है।
    वैतरणी की गाय : इसके सहारे आत्माएँ आसानी से वैतरणी पार कर जाती हैं, किंतु इस क्रम में यह स्वयं सदैव वैतरणी की नारकीय भयानकता में फँसी चक्कर काटती रहती है। यही इसकी नियति है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : राकेश रंजन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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