आलाप
क्या मेरा होना
कहता नहीं तुमसे कुछ
क्या मेरा होना
सिसकता नहीं रहता लगातार
बुदबुदाता नहीं अपने मन के अनर्गल वाक्य
फड़फड़ाता नहीं अपने आधे कटे पंख
दीवार पर धूप
रोशनी और गर्माहट से अलग भी कुछ कहती है
रंगों को टोहते
दरारों में पिछली गर्मियों के अवशेष खोजती
प्रकाश और छाया के अपने प्राचीन शिल्प में
कितना कुछ नया बोलती है अपने हर इंगित में
चलते पैरों को पृथ्वी कब बतलाती है
अपनी साँस की डूबती लय
आकाश कब सिखलाता है उन्माद में डूबे हृदयों को
कि उड़कर कैसे ओझल हुआ जाता है
कौन सिखाता है देह को प्रेम या मृत्यु
कौन बतलाता है इसे वासना का सही मतलब
अपनी यौनिकता के बिखरे आश्वासन में
एक मूक पराजय के राग में यह लौटती है बार-बार
अपनी प्रतिबद्धताओं की चट्टानों से चोटिल
मंत्रोच्चार की तरह बुदबुदाती
छूट गई क्रांतियों के नाम और चिह्न
अग्नि में प्रविष्ट होती औरत
अपनी देह में जमी वर्षों की अरण्य-गंध
अंततः पृथ्वी को ही तो सौंपेगी
मेरे युग की दंतकथाओं में कितनी बची है पृथ्वी
कि सौंप सकूँ इसके सिंचित रहस्य।
- रचनाकार : वसु गंधर्व
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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