ये पहाड़ वसीयत हैं
हम आदिवासियों के नाम
हज़ार बार
हमारे पुरखों ने लिखी है
हमारी संपन्नता की आदिम गंध हैं ये पहाड़।
आकाश और धरती के बीच हुए समझौते पर
हरी स्याही से किए हुए हस्ताक्षर हैं
बुरे दिनों में धरती के काम आ सकें
बूढ़े समय की ऐसी दौलत हैं ये पहाड़।
ये पहाड़ उस शाश्वत गीत की लाइनें हैं
जिसे रात काटने के लिए नदियाँ लगातार गाती हैं।
हरे ऊन का स्वेटर
जिसे पहन कर हमारे बच्चे
कड़कती ठंड में भी
आख़िरकार बड़े होते ही हैं।
एक ऐसा बूढ़ा जिसके पास अनगिनत क़िस्से हैं।
संसार के काले खेत में
धान का एक पौधा।
एक चिड़िया
अपने प्रसव काल में।
एक पूरे मौसम की बरसात हैं ये पहाड़।
एक देवदूत
जो धरती के गर्भ से निकला है।
दुनिया भर के पत्थर-हृदय लोगों के लिए
हज़ार भाषाओं में लिखी प्यार की इबारत है।
पहाड़ हमारा पिता है
अपने बच्चों को बेहद प्यार करता हुआ।
तुम्हें पता है
बादल इसकी गोद में अपना रोना रोते हैं।
परियाँ आती हैं स्वर्ग से त्रस्त
और यहाँ आकर उन्हें राहत मिलती है।
हम घुमावदार सड़कों से
उनका शृंगार करेंगे
और उनके गर्भ से
किंवदंतियों की तरह खनिज फूट निकलेगा।
- पुस्तक : तय तो यही हुआ था (पृष्ठ 13)
- रचनाकार : शरद बिलौरे
- प्रकाशन : परिमल प्रकाशन
- संस्करण : 1982
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