उठो और देखो, उजाले की साज़िश में
एक सवेरा आकर हिसाब माँग रहा है
माँग रहा बिजली का बिल, राशन कार्ड
सब्ज़ी और अगरबत्ती का ख़र्च, ऑटोवाले का बक़ाया
ऊपर से कैलेंडर के बाहर खड़ी कई उनींदी रातें
या रूखे अलार्म की नींद जो टूटी नहीं अब तक
वह बराबर आता है आधी रात को
अपनी उस जरीदार झीनी पोशाक में
बाज़ार में ख़रीददारी के वक़्त मोच खाए
कंधे को सहला कर उसकी दिपदिपाती
आँखों से, छाती पर लद जाता
उसकी भी तो हत्या करके सवेरा
आता है फिर से और हिसाब माँगता है
इतनी जल्दी ख़त्म हो गया तेरी देह का अवशेष!
कितना है फ़ास्टिंग ब्लड सुगर!
घर की ई.एम.आई.!
अब भी तू देख रहा हवाई जहाज़ की ओर
इतनी बेशर्मी से!
अपनी रिंगटोन भी पहचान नहीं पाता भीड़ में
ऐसे न जाने कितना कुछ
जब वह मनिहारी सामान ख़रीदता
पीठ दिखाकर समुद्र की उत्ताल तरंगों को
उसके साथ बीती यादों के अनगिनत पल
ऑवर ग्लास से मेरी छाती के भीतर झरने लगते
और रेलवे जंक्शन-सी मेरी हथेलियों में से
कौन-सी रेखा उसकी है, यह हिसाब भी
माँगता है निर्दयी सवेरा
ट्रेन लाइन में पिछली रात कटे हुए
जानवर-सी एक रात की लाश
कुछ मामूली कविता की पंक्तियाँ
शराब की दो ख़ाली बोतलें
जतन से सहेजे गुप्त स्वप्न की सी.डी.
चू पड़ी इत्र की शीशी
इन सबको एक काले पॉलीथिन में लपेट कर
कचरे के ट्रैक्टर में फेंक आता सवेरा
फिर नए सिरे से हिसाब लिखने को
डायरी का एक नया पन्ना खोलता।
- पुस्तक : सदानीरा
- संपादक : अविनाश मिश्र
- रचनाकार : शक्ति महांति
- प्रकाशन : सदानीरा पत्रिका
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