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कुतुबमीनार के सामने

in front of Qutub Minar

लक्ष्मीकांत मुकुल

लक्ष्मीकांत मुकुल

कुतुबमीनार के सामने

लक्ष्मीकांत मुकुल

छुटपन के दिनों में जब भी आता था बाइसकोप वाला 

उमड़ आता था गलियों में बच्चों का सैलाब 

जादुई बक्से की खोल हटते ही पहली नज़र में

दिख जाता कुतुबमीनार 

लाल-तंबई रंगत की नलिका-सी पतली इमारत

छेदते हुए आकाश, मुक़ाबले में हराते हुए

लंबे सुपारी वृक्षों को, बातें करते हुए बादलों,

रेत भरी आँधियों, पलारी जले धुओं से टकराता 

अडिग नईम-सा खड़ा है सदियों से प्रहरी की भाँति

अभी मेरे सामने तना है वह

खंडहरों, अधूरी इमारतों, नायाब स्थापत्यों के बीच 

यादें संजोता हुआ निर्मित समय से

समकाल तक का इतिहास

स्थानीयता का मिट्टी-पानी-हवा पाता सूँघता हुआ 

बारहा उजड़ती-बसती दिल्ली के तमाम बदलते रूप

समय के शासकों के रोब, क्रूरता, दिखावपन,

सँघात आम अवाम के छलकते दर्द भरे आँसू,

कराहटें, छटपटाहटें 

सत्ता-सत्ता लोभी दलालों, 

मनसबदारों के गिरगिट-सी चालें 

अपने बुर्ज़ की चिड़िया उड़ान नेत्रों से 

देखा है कुतुब मीनार

सुनाने को क़दीम के बेमिसाल क़िस्से-मसलहे

एक सजग दास्तानगो की तरह

वह देखता रहा छः लाख़ भारतीय गाँवों की

रसक्तता को किस स्याही सोख़्ता से निचोड़ रही है

लुटियंस दिल्ली, नई-पुरानी दिल्लीयों को आत्मसात करता

एनसीआर का उदर बढ़ता जा है कबंध-सा 

अपने आज़ू-बाज़ू के क्षेत्र को निगलता हुआ 

पिशाच-सा चबाता हुआ हरे-भरे निकटवर्ती खेतिहर

गाँव-क़स्बों,छोटे शहरों को अपनी खोंच में 

समाते हुए झामुंडा राक्षस-सा 

पलायन, शहरीकरण, आधुनिकता के 

नित नए मायाजाल फैलाते पिछड़े प्रदेशों के

सोखते हुए लोकायतन की संचित थाती  

विदेशी पूंजी के सहारे नाचती बार बालाओं की तरह चकाचौंध में भ्रमित होती

हमारी नई पीढ़ी के सपनें 

सिर्फ़ गुंबदों,मीनारों,प्रस्तर पत्थरों के ढेर नहीं होते

ये स्मारक—यह कुतुबमीनार

जादुई बक्से के बरक्स अभी सामने दिखते

इस प्राचीन इमारत की बनावटें,

मंज़िलें, खिड़कियाँ, झरोखे जालियाँ, मेहराब सिर्फ़ जंगली कपोतों के

निवास गृह नहीं है मात्र 

मूक स्वरों में बताते हैं हमें माजी, ज़माना-ए-हाल, आक़िबत के तिलिस्म

कि वे युग बीत जाने के बाद भी कायम-दायम है

ठीक, जली खेत में खुटियों की साबुत की तरह!

स्रोत :
  • रचनाकार : लक्ष्मीकांत मुकुल
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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