मृत्यु री, तेरा आना मुझे पसंद नहीं,
इसलिए नहीं कि मेरे जीवन के रस अभी अधूरे हैं,
अधूरे ही रहते हैं वे तो सभी के। मेरा तो सौभाग्य है कि
नवो रस जीवन के मैं चख भी सका हूँ ज़रा ज़रा—
थोड़ा मान और थोड़ा धन, थोड़ा प्रेम
और थोड़ा धिक्कार, थोड़ा हर्ष-शोक के झूले में झूलना—
यह सब मैं तो यहाँ पा भी सका हूँ।
पर भाई, इतना भी कितनों को मिला?
नहीं, नहीं, असंतोष नहीं है मुझे हृदय में इसका तनिक भी!
कोटि-कोटि मनुष्य यहाँ जड़चित्त, अखंडित अचेष्टा में
अपनी आयु बिता देते हैं।
फिर भी मुझे तो यहाँ मिली, भले ही घड़ी-भर के लिए,
अपने इस चैतन्य के स्फुरण की कैसी सुखानुभूति!
और री मृत्यु, इस चंचल विश्व में सदा
निश्चल, निश्चित एकमात्र तू ही है।
तू टाली टल ही कैसे सकती है?
और अगर तुझे टालना संभव ही नहीं,
तो फिर तेरे संग शांति से क्यों न चला जाए?
फिर भी मैं कहता हूँ आज तेरा आना रुचिकर नहीं तनिक
भी मुझे!
जब युगों के युग को छोड़कर,
अनंत-सी निद्रा और आलस्य को त्यागकर,
उठ बैठा और पहले कभी न देखा और न सुना मानव-जाति ने,
ऐसा विरल प्रयोग कर आज मेरा देश
नवविधान के लिए प्रयत्न कर रहा है,
अपने ही लिए नहीं, किंतु समस्त जगत् के लिए।
भाई, अपने को निचोड़कर, इस भगीरथ प्रयोग की सिद्धि में
जुटकर
आयुष्य को क्षीण करना है।
अहो हो! कैसा विरल भाग्य मुझे प्राप्त है यह!
यहाँ मनुष्य को सच्चे मनु की भाँति जिलाने के लिए
ये नदियाँ कैसी नाथी जा रही हैं!
धरती के अनस्तल की सुषुप्त सिद्धियों को प्रकट कर
वीरान में नंदन वन रचने को सब प्रयत्नशील हैं।
देश की सूरत बदलने के लिए सब कटिबद्ध हैं।
अरे, विश्व हम पर आस लगाए बैठा है
हम यहाँ अपने को जैसा आकार देंगे,
समस्त जग का वैसा ही आकार होगा।
ऐसा सौभाग्य भूत काल में किसे प्राप्त हुआ था?
और आगे फिर भविष्य में किसे प्राप्त होगा?
यह तो हमें त्रिकाल में ऐसा काल यहाँ मिला है।
लोक-कल्याण के यज्ञ में अपने अणु-अणु को
होम कर कृतकृत्यता पाने का यह मौक़ा मिला है।
मेरे मन में होता है: काश मैं आज नौजवान होता!
और आँखों पर आँसुओं का पर्दा गिर जाता है।
और भीतर-ही-भीतर ह्रदय-दाहक अग्नि से जलता है।
तब री मृत्यु! क्योंकर पसंद आए तेरे संग आज चलना?
इसीलिए मैं तुझसे कहता हूँ कि ज़रा भी मुझे पसंद नहीं है
तेरा अभी आना, भले ही तू मित्र हो!
फिर भी मैं जानता हूँ कि तेरा चाहा ही तू करेगी।
जब तुझे आना ही होगा तब तू आएगी अवश्य री!!
इसीलिए तो बहिनी, आज इतनी एक विनती करता हूँ—
कि भले ही आना, अगर तूने आने का ही तय किया हो तो;
पर न आना मुझे अपने चिर-शांति के धाम में ले जाने को,
मुझे आज शांति नहीं चाहिए;
किंतु तू आना, नेपथ्य में क्षण-भर ले जाकर
नए नाम व नए रूप से सुसज्जित कर
फिर से मेरे तन-मन को
नव-यौवन की बहार से परिपूरित कर
मैया के अंक मे पुनः रख देने को!
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 261)
- रचनाकार : मनसुखलाल झवेरी
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
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