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मेरी बुआ जब विदा होतीं

meri bua jab vida hotin

अखिलेश जायसवाल

अखिलेश जायसवाल

मेरी बुआ जब विदा होतीं

अखिलेश जायसवाल

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    मेरी बुआ जब भी विदा होती थीं

    और जाती थीं अपनी ससुराल,

    उन्हें दिया जाता था ढेर सारा पाहुर और लुग्गा,

    कई झाँपियों में भर कर दिया जाता था—

    ठेकुआ, खाजा, बताशा, टिकरी और ठोर।

    झाँपियों के ऊपर रंगीन काग़ज़

    चिपका दिए जाते थे।

    जिस ताँगे पर वह जाती थीं

    उस पर बाँस की लचकदार कइन से

    मेहराबनुमा आकार बनाकर

    ऊपर से ओहार डाल दिया जाता था।

    उनके खोइंछे में डाल दिया जाता था—

    चावल, हल्दी और दूब।

    बुआ जाने से पहले

    मेरी आजी और अम्मा को भेंटती थीं,

    माई रे माई और भौजी हो भौजी कहकर

    उनके कंधों पर सिर रखकर

    बुक्का फाड़कर रोतीं।

    मेरी अम्मा उनको बबुनी कहती थीं

    और आजी धिया।

    उनकी शादी के पहले

    आजी कभी उनको डपटतीं तो कहतीं थीं—

    'बखानल धिया डोम घरे जालीं।'

    तो मेरी अम्मा और आजी भी

    उन्हें अँकवार में भरकर भेंटती थीं।

    वे मेरे बाबा का पैर पकड़ कर भेंटती थीं,

    चूँकि बाबू जी उनसे उम्र में बडे़ थे

    इसलिए भइया हो भइया कहकर

    उनका भी पैर पकड़कर भेंटती थीं।

    मै देखता था मेरे बाबा और बाबू जी भी

    अपने गमछे से अपनी आँखों को पोंछने लगते

    वे छिपा लेते थे अपने आँसुओं को।

    बुआ रोते-रोते बहुत कुछ कह जाती थीं,

    या यूँ कहें कि रोते-रोते पूरा गाना गाती थीं।

    अमीर खुसरो को तो मैने बहुत बाद में जाना

    मेरे लिए तो उनसे पहले ही

    मेरी बुआ बाबा को कहकर जा रही थीं—

    हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गैयाँ

    और काहे को ब्याहे बिदेस।

    उस मौक़े पर गाँव की उनकी सारी सखियाँ

    घर में इकट्टी हो जातीं।

    घर से बाहर निकलने से पहले

    सभी बूढ़ी महिलाओं का

    अपने अँचरा से पैर छूतीं

    और वे उनको—अहवातिन रहा का आशीर्वाद देतीं।

    वे अपनी सभी सखियों से गले मिलतीं

    उनकी सखियाँ भी अपने पल्लू से

    अपनी आँखों के कोरों को पोंछती-सुबकती

    उनसे गले मिलकर विदा करती थीं

    और घर से निकलने के बाद

    सती माई के चौरा तक

    उनके साथ जातीं,

    अपने आँचल के कोने पकड़कर

    सती माई को समूह में प्रणाम करतीं

    और बुआ को विदाकर उन्हें जाते हुए तब तक देखतीं

    जब तक कि वे उनकी नज़रों से ओझल हो जातीं।

    फिर अपने पल्लू को मुँह पर चिपकाए हुए,

    सर ज़मीन में गड़ाए हुए घर लौटने लगतीं,

    उस समय उनकी चाल बड़ी धीमी होती,

    उन्हें घर लौटने की कोई जल्दी नहीं होती,

    घर लौटने तक वे एक-दूसरे से

    किसी भी प्रकार की कोई बात नहीं करतीं,

    शायद उन्हें अपनी प्रिय सखी का विछोह

    अंदर तक साल रहा होता

    या काल्हि हमारी बारि के कारण

    अंदर तक सहमी हुई होतीं,

    ऊपर से जिनके गौने का दिन रखा गया होता

    वे तो और भी ज़्यादा सहमी हुई होतीं

    और उन सबको देखकर सहमे हुए होते

    उनकी अनब्याही सखियों के बाप

    जिनकी एड़ी खिया चुकी होती

    मनपसंद आर्यपुत्रों की खोज में।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अखिलेश जायसवाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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